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________________ ज्ञानिनो मृतसंगाय मृत्यस्ताप करोपि सन् । प्रामकुम्भस्य लोकेस्मिन भवेत् पाक विधिर्यथा ॥१३॥ 13. Though death creates pain, torture, But to wise men it is like nectar, As in fire some good pitcher is prepared to keep cool water. यद्यपि मरण ताप करता है, पर अमृत-सा ज्ञानी को है। जैसे कुम्भ अग्नि में तपकर, . बनता शुचि जल रखने को है ॥१३॥ - अर्थ-यद्यपि इसलोकमें मृत्यु है सो जगतको आताप करनेवाला है तोहू सम्यग्ज्ञानी के अमृतसंग जो निर्वाण ताके अर्थ है । जैसे कच्चा घड़ा अग्निमें पकावना है, सो अमृतरूप जलके धारणके अथि है। जो काचा घड़ा अग्निमें एकवार पकजाय तो बहुत काल जलका संसर्गको प्राप्त होय। तैसे मृत्युका अवसरमें आताप समभावकर एकबार सहजाय तो निर्वाण का पात्र हो जाय ॥ भावार्थ-अज्ञानीके मृत्युका नामसे भी परिणाम आताप उपजे है । जो मैं चल्या अब कैसे जीऊ, कहा करूं, कौन रक्षा करे-ऐसे संतापको प्राप्त होय है । क्योंकि अज्ञानी तो बहिरात्मा है, देहादि बाह्य वस्तुकोही मात्मा माने है । पर ज्ञानी जो सम्यग्दृष्टि है सो ऐसा माने है जो पायकर्मादिका निमित्तते देहका धारण है, सो अपनी स्थितिपूर्ण भये अवश्यबिनशेगा मैं प्रात्मा अविनाशी ज्ञानस्वभाव हैं। जीर्णदेहको छोड़ि नवीन में प्रवेश करते मेरा कुछ विनाश नहीं है ।। सत्फलं प्राप्यते सद्भिः व्रताया सविडंबनात् । तत्फलं सुख साध्यं स्यात् मृत्युकाले समाधिना ।।१४।।
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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