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________________ देहसे मेरा छूटना होयगा। रोग नहीं आवे तो पूर्वकृत कर्म नहीं निर्जरे । पर देहरूप महादुर्गंध दुःखदाई बन्दीगृहसे मेरा शीघ्र छूटना ही नहीं होय । पर यह रोगरूप मित्रको सहाय ज्यों-ज्यों देहमें बधे है त्यों-त्यों मेरा रोग बन्धनसे, कर्मबन्धनसे पर शरीरबन्धनसे छूटना शीघ्र होय है । अंर यह रोग तो देहमें है सो इसदेहको नष्ट करेगा। मैं तो अमूर्तिक चैतन्य स्वभाव अविनाशी हूं, ज्ञाता हूं। पर जो यह रोग जनित दुःख मेरे जानने में आवे है सो मैं तो जाननेवालाही हूँ याकी लार मेरा नाश नहीं है। जैसे लोह की संगतिसे अग्नि हं धन्नो की घात सहे है, तैसे शरीरकी संगतिसे वेदना का जानना मेरे ह है । अग्निसे झोपड़ी जले है, झोपड़ीके मांही आकाश नहीं जले हैं । तैसे अविनाशी अमर्त चैतन्यधातुमई में आत्मा ताका रोगरूप अग्निकर नाश नहीं है। पर अपना उपजाया कर्म आपको भोगना ही पड़ेगा। कायर होय भोगगा तो कर्म नहीं छोड़ेगा। पर धीरज धारण कर भोग गा तो कर्म नहीं छोड़ेगा । तातेकायरता को धिक्कार होह, कर्मका नाश करने वाला धैर्य ही धारण करना श्रेष्ठ है। पर हे प्रात्मन् तुम रोग आये इतने कायर होतेहो, सो विचार करो नर्कों में इस जीवने कौन कौन त्रास भोगी, असंख्यातवार, अनन्तवार मारे, विदारे, चीरे फाड़ गये हो, यहां तो तुम्हारे कहा दुःख है। पर तिर्यंच गतिके घोर दुःख भगवान ज्ञानीहू बचन द्वारा कहनेको समर्थ नहीं। अनन्तवार अग्निमें जलि मरया हूं, अनन्तवार जलमें डूब डूब मरया हं, अनन्तवार विषभक्षणकर मरया हूं, अनन्त वार सिंह, व्याघ्र,सादिक करि बिदारया गया हूं, शस्त्रोंकर छेद्या गया हूं, अनन्तवार शीत वेदनाकर मरया हूँ, अनन्तवार उष्णवेदनाकर मरया हूँ, अनन्तवार क्षुधाकी वेदनाकर मरया हूँ, अनन्तवार तृषावेदनाकर मरया हूँ। अब यह रोगजनितवेदना कितनीक है । रोगही मेरा उपकार करे है, रोग नहीं उपजता तो देहसे मेरा स्नेह नहीं घटता, पर समस्तसे छट परमात्माका शरण नहीं ग्रहण करता। ताते इस अवसरमें जो रोग हैं, सोहू मेरा आराधना मरणमें प्रेरणा करने वाला मित्र है। ऐसा विचारता ज्ञानी रोग आये क्लेश नहीं करे है । मोहका नाश होनेका उत्सव ही माने है। (१५)
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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