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________________ २८ :: परमसखा मृत्यु मृत्यु के बाद हमारा क्या होगा, कहां जाना पड़ेगा, क्या भुगतना पड़ेगा, इसकी कोई स्पष्ट कल्पना न होने से जो डर लगता है, उसे हम 'अज्ञात का डर' कह सकते हैं। ऊपर जितने डर हमने बताये, वे मरने वाले के चित्त में उठनेवाले डर हैं, जिनका हमें विस्तार से चिन्तन करना है, क्योंकि इनमें से बहुत से डर अज्ञानजनित निष्कारण डर हैं और उनका दुःख हम आसानी से दूर कर सकते हैं। लेकिन अपने किसी इष्ट-जन की मृत्यु देखने से या सुनने से जो दुःख हमें होता है उसका क्या ? विशेष परिस्थिति में ऐसी मृत्यु के कारण मनुष्य को अपने भविष्य के लिए भी डर लगता पति के मर जाने पर उसकी पत्नी को दुःख भी होता हैऔर डर भी लगता है कि वैधव्य-दशा में मेरा भरण-पोषण कौन करेगा ? ससुराल में और समाज में मेरी क्या स्थिति होगी? मेरे प्रति बाल-बच्चे भी कैसे पेश आयेंगे?—इत्यादि तरह-तरह के डर स्त्री को सताते हैं। छोटे बच्चे अथवा पुरुषार्थहीन आश्रित लोग अन्नदाता के मर जाने पर अपनी हालत से चिन्तित होकर जो डरने लगते हैं, उसका चिन्तन हमें यहां नहीं करना है। वह तो व्यवहार का एक अलग सवाल है। सगे-सम्बन्धी अथवा इष्ट-मित्र के मरने पर हमें जो दुःख होता है, वह स्वाभाविक है। ऐसा दुःख होना कुछ हद तक उचित भी है, लेकिन उसकी अवधि बढ़ना अथवा मात्रा बढ़ना मनुष्य के लिए शोभा नहीं देता। ऐसे दुःख से मनुष्य जब विचारशून्य होता है, किंकर्तव्यविमूढ़ बनता है, तब इसे उसकी अज्ञानता, मूढ़ता और बुद्धि की जड़ता ही समझना चाहिए। वियोग का दुःख स्वाभाविक है। वह विवेक से ही दूर हो सकता है और विवेक की शक्ति मनुष्य को किसी भी हालत में खोनी
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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