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________________ मरण दान :: ६६ नहीं चाहिए। वह तो हमेशा बढ़नी ही चाहिए। • अब रहा किसी के मरण पर समाज को होने वाला दुःख । इसमें भी लाभ-हानि का विचार एक चीज है, नेतृत्व की और सलाह-सूचना की अपेक्षा टूट गई, इसका दुःख दूसरी चीज है । अच्छे आदमी का वियोग हुअा यह सर्वसामान्य दुःख है ही, यह स्वाभाविक भी है, और उसकी मर्यादा रहना हमेशा इष्ट है। ऐसी हालत में विवेक-शक्ति आसानी से मदद देती है और दुनिया अपने रास्ते चलती है। किसी की मृत्यु को देखकर या सुनकर जो दुःख होता है, उसके बारे में दो-तीन तरह का विचार या विवेक करना इष्ट ___ अगर मरनेवाला आधि-व्याधि से या बुढ़ापे से त्रस्त था, जीना उसके लिए दूभर हो गया था, तो ऐसी हालत में उसका छूट जाना हमें इष्ट और अभिनन्दनीय ही लगना चाहिए। अपने लाभ-हानि का विचार छोड़कर और वियोग के दुःख को काबू में लाकर हमें तो राजी ही होना चाहिए कि बेचारा दुःखमुक्त और चिन्तामुक्त हुआ। __मरने वाले की मृत्यु के बाद जब आसपास की सारी हालत बिगड़ जाती है तब भी हम कहते हैं कि 'भाग्यवान था वह मरनेवाला, क्योंकि बाद की दुर्दशा देखकर दुःखी, लज्जित या त्रस्त होने से बच गया।' ___ जो लोग इतिहास जानते हैं, जीवन-परम्परा और सामाजिक जीवन का घटना-चक्र जानते हैं, वे तुरन्त कहते हैं, “मरण अवश्यंभावी है। दुनिया किसी के लिए ठहरी नहीं है, भले-बुरे दिन जीवन-क्रम में आते ही हैं। इसलिए मरण का शोक करना व्यर्थ है।" (दिलासा देनेवाले लोग अक्सर यही दलीलें करते हैं। सबको ये दलीलें कंठस्थ भी हो गई हैं। फलतः सच्ची होने
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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