SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मृत्यु का रहस्य :: ७३ पांव समेट लिये और दोनों पास-पास सो गए । बारिश बढ़ी और दूसरे दो यात्री आये। उन्होंने पूछा, “जगह है ?" दोनों ने कहा, "अवश्य ! आप अन्दर आइये।" अब दो के चार हो गए। झोंपड़ी में सोना अशक्य था। चार आदमी बैठकर बातें करने लगे और ऐसे ही रात व्यतीत करने का उन्होंने निश्चय किया। इतने में चार और आये । उनका भी इन चारों ने स्वागत किया। अब बैठना नामुमकिन हो गया। आठ-केआठ झोपड़ी में खड़े होकर भगवान का भजन करने लगे और बारिश से भगवान ने बचाया इसका आनन्द मानने लगे। यही है आत्मौपम्य । जो कुछ भी पाया, सबका है, सबके साथ समविभाग करके पाना है, यही है आत्मौपम्य का तरीका-प्रात्मऐक्य की साधना। ___ अब अगर ऐसी साधना हम करते रहें तो मृत्यु का डर नहीं रहेगा। मृत्यु भी जीवन-साधना का एक अंग ही है । सुख और दुःख, जीवन और मरण दोनों साधना रूप हैं । सुख और जीवन कुछ छिछले हैं। उनकी ज्ञानोपासना मंद होती है । दुःख, संकट, निराशा और मरण इनकी साधना गहरी होती है। इनके द्वारा जीवन का साक्षात्कार सम्पूर्ण होता है। इनकी ज्ञानोपासना तेज होती है । इसलिए साधना में इनका महत्व अधिक है। अगर जिन्दगी में किसी को केवल दुःख-ही-दुःख मिला तो उसकी साधना बधिर हो जायगी, उसमें नास्तिकता प्रा जायगी। इसके विपरीत किसी के जीवन में अगर सुख-ही-सूख रहा हो तो उसका जीवन उथला होगा। उसका आत्मौपम्य टूट जायगा और उसका सफल-जीवन भी साधना की दृष्टि से विफल होगा। इसलिए अगर भगवान की कृपा रही तो सुख और दुःख, सफलता और विफलता दोनों हमें प्रचुर मात्रा में मिलेंगे। मृत्यु के साक्षात्कार के द्वारा ही मनुष्य जीवन का
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy