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________________ ७२ :: परमसखा मृत्यु असमाजी जीवन व्यतीत क्यों करें? जिस तरह मरणोत्तर जीवन सामाजिक रहेगा, वैसा ही जीवन अगर मृत्युपूर्व व्यतीत किया तो मृत्यु के इस पार और उस पार एक ही प्रकार का शुभ जीवन होगा। जिसे हम समाजवादी ढांचा कहते हैं, वह हमारे प्राध्यात्मिक, सामाजिक जीवन का बाह्यरूप है। जिसे हम सर्वोदयकारी पुण्य-जीवन कहते हैं, वह उसका आंतरिक स्वरूप होगा। वेदान्त ने उसे नाम दिया है -विश्वात्मैक्यभावना, भूमा-स्वरूप जीवन । आत्मौपम्य उसकी साधना है। आत्मौपम्य की यह कल्पना कुछ स्पष्ट करनी चाहिए। मनुष्य को जब भूख लगती है तो वह आहार ढूंढ़ता है। आहार को प्राप्त करके उसका उपभोग करता है। यह हुआ प्राकृतिक जीवन। लोग इसे पशु-जीवन भी कहते हैं। लेकिन मेरे पेट में भूख की वेदना शुरू होते ही अगर मैं औरों की भूख का साक्षात्कार करू और उनकी क्षुधा का निवारण करने का यत्न करूं तो वह धार्मिक जीवन हुआ । वह साम्पराय के लिए पोषक होगा। मैं जो कुछ भी पुरुषार्थ करूं, उसका लाभ सबको देने की अगर वृत्ति रही तो वह सर्वोदयकारी विश्वात्मैक्य प्रेरित ब्राह्मजीवन होगा। जो कुछ भी ज्ञान मैंने प्राप्त किया वह सबको दे दूं, सबका दुःख और संकट अपना ही मान लूं और सबके साथ जो मुझे मिले, उतना ही मेरा अधिकार है, ऐसा समझकर चलूं तो मृत्यु के इस पार का और उस पार का जीवन एकरूप होगा और यही है मृत्यु पर विजय । ___ एक साधु छोटी-सी झोंपड़ी में रहता था। हाथ-पांव फैलाकर आराम से सोता था। इतने में जोरों से बारिश आई। किसी ने बाहर से आवाज देकर पूछा, "मेरे लिए अन्दर जगह है ?" साधु ने कहा, "अवश्य ।" उसने अपने फैले हुए हाथ
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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