SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ :: परमसखा मृत्यु उतना शायद जीवन-प्रवेश की तैयारी करना आसान नहीं है। पता नहीं, कैसे हम यकायक जीवन में प्रवेश करते हैं । इसी तरह पता नहीं, कैसे मृत्यु हमें एक क्षण में घेर लेती है। यह हुआ स्थूल दृष्टि का वचन । अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो अपने सुदीर्घ जीवन में हम बराबर ढूंढ़ सकते हैं कि हमारी मरण-यात्रा कब, मृत्यु कैसे शुरू हुई, किस वेग से चली और कैसे उसकी परिसमाप्ति हुई। जिस तरह शुक्लपक्ष में केवल प्रकाश नहीं होता और कृष्णपक्ष में अन्धेरा-ही-अन्धेरा नहीं होता, उसी तरह हमारे जीवन में मरण की बुनाई धीरे-धीरे बढ़ते देख सकते हैं। __ कठोपनिषद के यमराज कहते हैं कि मरण के बाद मनुष्य यथाकर्म, यथाश्रु तम और यथाप्रज्ञा नए जीवन में प्रवेश करता है। इस जावन में हम जैसे कर्म करते हैं, प्रयोग और चिंतन के द्वारा जैसे-जैसे अनुभव और ज्ञान बढ़ाते हैं और इस विश्वसंस्था को और जीवन-संस्था को समझने को प्रज्ञा बढ़ाते हैं उसी तरह का नया जन्म हमें मिलता है। दूसरी दृष्टि से सोचा जाय तो जैसी पैतृक परम्परा हो, वैसा जीवन हमें मिलता है। मां-बाप की जीवन-सिद्धि या प्रसिद्धि और उनके संकल्प के निचोड़ के अनुसार हमें जन्म मिलता है। उनके शरीर के परमाणु से हमारा शरीर बनता है। ऐसे शरीर में जीवात्मा के रूप में जब हम प्रकट होते हैं तो हम अपनी पूर्वजन्म की साररूप पूंजी साथ लेकर आते हैं। उसके बाद इस दुनिया की आबोहवा से और पार्थिव तत्वों से हमें पोषण मिलता है । प्रास-पास के समाज से हमें तरह-तरह के संस्कार मिलते हैं। हमें चाहनेवाले और न चाहनेवाले सम्बन्धित लोगों के जीवन में हम तरह-तरह के प्रयोग करते, जीवन जीते अथवा जीवन-लीला का अनुभव करते हैं।
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy