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________________ ५० :: परमसखा मृत्यु शरीर और निर्रथक जीवन देखते रहना क्या तुम्हारे लिए शोभा देता है ? ऐसे शापरूप जीवन से मुझे मुक्त करना क्या तुम्हारा कर्तव्य नहीं है ? तुम्हारा दया-धर्म क्या कहता है ? मुझे मरण-दान अगर नहीं दोगे तो यह तुम्हारी कठोरता और क्रूरता नहीं होगी ? कम-से-कम कायरता तो है हो।" मैं मानता हूँ कि ऐसी हालत में मरण-दान देकर शरीर छोड़ने में मरीज की मदद करना, यही डाक्टर का पवित्र कर्तव्य है। उसे टालना सामाजिक गुनाह है, अधर्म है। ___ साबरमती के सत्याग्रहाश्रम में हम लोग एक गौशाला चलाते थे। उसमें गाय का एक बछड़ा बीमार हुआ। हम आश्रमवासियों की गौ-भक्ति तुच्छ कोटि की नहीं थी। आश्रम के पास सेवकों और पैसों की भी कमी नहीं थी। गांव और शहर के पशु-वैद्य बुलाये गए। सब तरह का इलाज किया गया। लेकिन बछड़े का रोग दूर नहीं हुआ। उसकी अन्त घड़ी नजदीक आई । चार-आठ दिन वेदना भुगत कर बछड़ा मर जाता। ऐसी हालत में गांधीजी ने सुबह की प्रार्थना के बाद आश्रम के चन्द व्यक्तियों को बुलाकर पूछा, “आप लोगों की राय क्या है ? उस बछड़े का अन्त करना हमारा धर्म है, ऐसी मेरी राय है। आपका अभिप्राय चाहता हूं।" मैंने कहा, "आपकी राय के साथ मैं सहमत तो हूं, लेकिन ऐसा गम्भीर सवाल उठने पर मेरा धर्म है कि मैं बछड़े की इस क्षण की हालत देखू और बाद में ही अपनी राय दूं।" . जब मैं गौशाला में गया तो बछड़ा बेहोश पड़ा था। हलनचलन कुछ नहीं था। मैं असमंजस में पड़ा था कि अपनी राय कैसे निश्चित कर लूं? इतने में बछड़े के शरीर में वेदना का नया दौर आ गया। वह अपने चारों पैर जोर-जोर से झाड़ या झटक रहा था। उस
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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