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________________ ... मरण-दान :: ४६ किया, जिसने उस वीर के गले पर खंजर चलाकर उसे वेदना से मुक्त किया। ऐसे मौके पर हरएक सज्जन का यही कर्तव्य हो सकता है। इस मरण-दान को न हम खून कहते हैं, न हत्या। जिस तरह शल्य-वैद्य (सर्जन) मरीज के हाथ या पांव काटकर दूर करते हैं और मरीज की सेवा करने का आनंद अनुभव करते हैं, उसी तरह विशिष्ट मौके पर सारे शरीर को कांटकर मरीज को दुःख-मुक्त करना, यह भी सेवा ही होती है। जूलियस सीजर के राष्ट्रीय खून में सीजर का प्रिय मित्र ब्रटस भी शरीक था। रोम की जनता ब्रटस पर चिढ गई और उसे मारने दौड़ी। ब्रूट्स भागा, लेकिन देखा कि लोग उसे घेर ही रहे हैं, तब उसने सोचा कि मैं इन लोगों के हाथों क्यों मरूं ? उसने अपने नौकर से कहा कि यहां दीवार के पास खड़े रहो और अपनी तलवार मेरी ओर ताकते मजबूती से पकड़ो फिर बूटस जोरों से दौड़ता पाया और उस तलवार पर धंस पड़ा। तलवार उसके पेट में आरपार चली गई और ब्रूट्स का अन्त हो गया। ब्रूट्स ने खून से बचने के लिए प्रात्महत्या की और उसके नौकर ने अपने मालिक को मरण पाने में मदद की। यह भी एक किस्म का मरणदान ही था। किसी सज्जन को कुष्ठरोग हुआ । गलित-कुष्ठ था, जिसे रक्तपित्ती भी कहते हैं। तरह-तरह के इलाज करने पर भी रोग हटा नहीं। सारे शरीर में फैल गया। हाथ, पांव, नाक, कान, आंख सब व्याप्त हो गए । जीना दूभर हो गया। आसपास के सेवा करने वाले लोग थक गए । रोग-मुक्त होने की आशा होती तो सेवक न थकते। यहां तो केवल मरण नहीं आता था, इसीलिए उसकी सेवा करते रहने की बात की। सारी परिस्थिति समझ कर मरीज ने डाक्टर से प्रार्थना थी, “अब मेरे जीने में स्वारस्य क्या रहा ? मेरा यह वेदनापूर्ण, दुर्गन्धियुक्त
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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