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________________ स्वेच्छा-मरण :: ४५ दिया। फल यह हुआ कि आत्महत्या द्वारा मोक्ष पाने का एक रास्ता श्रद्धालु लोगों के लिए बन्द हो गया। प्रयाग के बारे में जब हम पढ़ते थे, तब ऊपर को सब बातें ज्ञात हुई। इस भैरवघाटी से कूदकर मोक्ष पाने के रिवाज के बारे में मैंने अन्यत्र कुछ विवेचन किया है। सृष्टि की भव्यता, पर्वतशिखर की उत्तुंगता या सागर की गंभीरता देखकर जब मनुष्य के मन पर उसका कैफ के जैसा असर होता है और मनुष्य आपे से बाहर होकर शरीर छोड़ देता है, तब सम्भव है कि उसे क्षणिक भावना के द्वारा या एकपक्षीय चिंतन के द्वारा विश्वात्मैक्य का साक्षात्कार होता है और उस ऐक्य के अनुभव के साथ शरीर की जुदाई अगर उसे असह्य होती हो और इसलिए ऐक्यानुभव स्थिर करने के लिए अगर वह शरीर छोड़ देना हो तो उसकी भी एक स्वतन्त्र कोटि मान लेनी चाहिए। आज के लोग इसे 'क्षणिक पागलपन का आवेग' कह सकते हैं। कोई इसको 'काव्यमय वृत्ति का उत्कर्ष' कहकर उसका समर्थन भी कर सकते हैं। हम तो इसे 'साधन का उन्माद' कहेंगे। ऐसे स्थान पर जाकर जो भावना का उद्रेक होता है, उसका कुछ अनुभव होने से हमने इसे 'साधन का उन्माद' कहा है । जो हो, ऐसे प्राणान्त का समर्थन नहीं हो सकता, उसकी निन्दा भी नहीं हो सकती। 'मारणान्तिक सल्लेखना' का एक प्रकार वह हो सकता है। उपवास के द्वारा ही शरीर छोड़ना चाहिए, ऐसी मर्यादा 'मारणान्तिक सल्लेखना' पर हम क्यों डालें? विजयनगर के किसी राजा ने बड़े समारोह के साथ नदी में प्रवेश किया और सब प्रजाजनों को नमस्कार करके जलसमाधि ले ली, ऐसा वर्णन हमने किसी कन्नड़ ग्रंथ में पढ़ा था। यह किस्सा भी 'मारणान्तिक सल्लेखना' का प्रकार हो सकता है।
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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