SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ :: परमसखा मृत्यु अपने हाथों पाप कर्म हो जाने के बाद फजीहत प्रौर बेइज्जती से बचने के लिए श्रात्महत्या करते हैं, वह उन्हें मान्य नहीं है । मनुष्य दुराचार टाल न सका, दुराचार हो ही गया तो उसका धर्म है कि वह जीकर उसका प्रायश्चित्त करे । जब दुराचार हो चुका और पाप-संकल्प का वेग कम हो गया तब उसका प्रथम धर्म है पश्चात्ताप करके प्रायश्चित्त करने का और नये सिरे से सदाचारी जीवन प्रारम्भ करने का । आत्महत्या करने का एक ही प्रसंग उन्होंने मान्य रकखा है । जब मनुष्य पापाचार का वेग बलवत्तर हुआ देखता है और आत्महत्या के बिना अपने को पाप से बचा नहीं सकता, तब होनेवाले पाप से बचने के लिए ही उसको श्रात्महत्या करने का अधिकार है । यह एक साधारण परिस्थिति की बात हुई । सामान्य तौर पर अगर मनुष्य देखे कि उसे कोई असह्य रोग हुआ है, जिसका इलाज हो नहीं सकता, रोग के साथ जीना दूभर हो गया है, समाज की कुछ सेवा भी नहीं हो सकती, आत्म-चिन्तन जैसी साधना भी नहीं हो सकती, और जीवन केवल भाररूप ही हो गया है, तब मनुष्य को न जीने का, अपने जीवन का अन्त करने का अधिकार होना चाहिए। निष्प्रयोजन, निरुपयोगी जीवन जीने के लिए या ऐसा जीवन टिकाने के लिए मनुष्य बाध्य नहीं है । जो घड़ी समय बता ही नहीं सकती, उसे चाबी देते रहने के कोई मानी नहीं हैं । अगर किसी की आत्म-साधना पूरी हुई, शरीर में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सेवा करने की तनिक भी शक्ति न रही, तो ऐसे व्यक्ति को भी जीवन क्रम का अन्त करने का अधिकार है । आत्यन्तिक अहिंसा का ख्याल करने वाला मनुष्य कहेगा" हिंसा किये बिना जिया नहीं जा सकता । अहिंसा की साधना
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy