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________________ स्वेच्छा-मरण :: ४१ है, उसे ख्याल में रखकर समाज-धर्म निश्चित नहीं किया जा सकता। रोग फैलने पर उसका इलाज करना ही चाहिए; लेकिन समाज-धर्म में ऐसे इलाजों को स्थायी रूप से नहीं दिया जा सकता। विभव-तृष्णा के बारे में जितना सोचना आवश्यक था, वह इस तरह सोचने के बाद स्वेच्छा से स्वीकृत मरण का विचार करना ठीक होगा। जीने के लिए सांस लेना, अन्न खाना, शरीर-परिश्रम करना, सो जाना, ये सब बातें मनुष्य के अधीन हैं । जब मनुष्य देखे कि अब जीने में सार नहीं हैं, जीने का प्रयोजन खत्म हो चुका है, और अधिक जीने से अपने व्यक्तित्व पर और समाज पर भाररूप ही बनना है, तब मनुष्य को स्वेच्छा से मर लेने का अधिकार है या नहीं, यह एक बड़ा नैतिक सवाल है । मैं आपही-आप नहीं जी सकता । अपने पुरुषार्थ से शरीर को अन्न-जल आदि आहार दे दूं, तभी शरीर टिक सकता है। ऐसी जब वस्तुस्थिति है, तब इस पुरुषार्थ को न करने का अधिकार भी मेरा होना चाहिए। इस अधिकार का मैं दुरुपयोग न करूं। लेकिन योग्य कारण उपस्थित होने पर इस अधिकार को काम में लाना मेरा कर्तव्य होता है या नहीं, यह बड़ा सवाल है । ___एक नैतिक सवाल का विवेचन करते हुए गांधीजी ने कहा था कि मनुष्य को प्राणान्त करने का अधिकार है, होना चाहिए। ___ अगर मनुष्य में पाप-वासना प्रबल हुई और दुराचार, अत्याचार करने से वह अपने को रोक ही नहीं सकता, ऐसा उसका अनुभव हुआ तो पापाचरण से बचने के लिए उसे आत्महत्या करने का अधिकार है। गांधीजी ने यह भी स्पष्ट किया कि आज जो कई लोग
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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