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________________ स्वेच्छा-मरण : ३९ ६ / स्वेच्छा-मरण बौद्ध धर्म में दो तृष्णाओं का जिक्र आता है-भव-तृष्णा और विभव-तृष्णा। भव-तृष्णा होती है, जीने की अनिवार्य इच्छा। विभव-तृष्णा होती है, न जीने की यानी मरने की उतनी ही अनिवार्य इच्छा । भव-तृष्णा सार्वभौम है, प्राणिमात्र में पाई जाती है। हर तरह के दुःख सहते हुए भी मनुष्य जीना चाहता है, मरना नहीं। विभव-तृष्णा, न जीने की यानी मरने की इच्छा, बिरले ही लोगों में पाई जाती है। लेकिन कम होते हुए भी उसका अस्तित्व कबूल करना ही पड़ता है। धर्म कहता है कि ये दोनों तृष्णाएँ दोष-रूप हैं, मनुष्य की उन्नति के लिए बाधक हैं। इसलिए मनु भगवान ने एक ही वचन में कहा है, "नाभि नन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्-" मृत्यु का अभिनन्दन न करो, मृत्यु को पाने की वासना मत रक्खो । जीवित का भी अभिनन्दन न करो।जीने की उत्कण्ठा और मोह नहीं रखना चाहिए। हमने कहा कि मरने की इच्छा प्राणिमात्र के स्वभाव में नहीं होती। अपवाद के तौर पर ही कोई जीवन से ऊब जाता है और मृत्यु को पसन्द करता है। लेकिन मनुष्य-जाति के इतिहास में ऐसे युग या ऐसे कालखंड पाये जाते हैं, जब लोगों में विभव-तृष्णा की, मर मिटने की वासना समाज में छूत के रोग जैसी फैलती है । तब समाज-नेताओं का कर्तव्य होता है कि विभव-तृष्णा के रोग से लोगों को बचावें । बौद्ध युग में ऐसे भी दिन पाये जाते हैं, जब अनेक लोगों में मर मिटने का उत्साह छूत या संसर्ग की तरह बढ़ता जा रहा था और उसके खिलाफ समाज के नेताओं को जबरदस्त आन्दोलन करना पड़ा
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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