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________________ ३८ :: परमसखा मृत्यु मृत्यु के बिना जीवन कृतार्थं नहीं हो सकता, यह बात सही है, लेकिन उसके लिए तो विचार पूर्वक, मौके पर अपने प्राण अर्पण करने पड़ते हैं । औरों को मारने से जीवन-सिद्धि प्राप्त नहीं होगी । योग्य प्रमाण में, योग्य ढंग से, सच्चे मौके पर अपना बलिदान देना, अंशत: या पूर्णतः मृत्यु को स्वीकार करना - यही जीवन की सच्ची सफलता है । मारने से, हिंसा करने से, जीवन की जटिलता बढ़ती है । जीवन की गुत्थियां और भी अधिक पेचीदा बनती हैं । जो हत्या करता है, और जिसकी हत्या हो जाती है, दोनों ही जीवन दर्शन से दूर-दूर हो जाते हैं, लेकिन जीवन और मृत्यु का रहस्य समझकर जो लोग अहिंसावृत्ति धारण करके मृत्यु से पूरा लाभ उठाना जानते हैं, वे ही सच्चे जीवन स्वामी बनते हैं। जो सिर्फ जिन्दा रहता है, और जिन्दा रहने के लिए सब कुछ बुरा भला करने को प्रस्तुत होता है, वह जीवन स्वामी नहीं बन पाता । जीवन-स्वामी तो वही है, जो अपने जीवन को कुशल किसान की तरह मृत्यु की मदद से विश्व व्यापार के क्षेत्र में बो सकता है । इसलिए जिन दिनों एक ओर हत्या की विफलता का अनुभव करने के लिए मनुष्य जाति ने सबसे बड़ी, विराट और भीषण प्रयोगशाला खोली है, और दूसरी ओर एक सत्याग्रह का दैवी तत्त्व दुनिया में चलाने वाला एक प्रयोग- वीर हमारे बीच है, उन दिनों हिंसा और अहिंसा की चर्चा करने से पहले हम यह अच्छी तरह समझ लें कि मृत्यु क्या चीज है ? विचार करके, ध्यान-चिन्तन करके और आवश्यक प्रयोग करके मृत्यु के स्वरूप को पहचानें । मृत्यु इस दुनिया में क्यों भेजी गई है, मृत्यु का जीवन-कार्य क्या है, यह हम अच्छी तरह समझ लें । अक्तूबर १९४१
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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