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प्रस्तावना देहधारी मात्र के जीवन की चार अवस्थाएँ हैं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय! योगीजनोंको तुरीय अवस्था की बड़ी झंखना रहती है, और उनकी जाग्रत अवस्था कुछ निराली ही है। इसके सम्बन्ध में श्री आचाराँग का मत है कि 'मुनि-ज्ञानी सदा जागता है, और प्रमुनि-अज्ञानी सदैव सोया पड़ा रहता है। इन्हीं भावों का अनुकरण श्रीगीता-उपनिषद्में भी किया है
या निशा सर्वभूताना, तस्यां जागति संयमी। यस्यां जापति भूतानि, सा निशा पश्यतो मुनेः ॥६६ ॥१०२ ॥ इसके बाद स्वप्नकी बात शेष रह जाती है। आगे के पृष्ठपटोंमें इसीकी चर्चा की गई है।
आदमीको सो जाने पर अधिकांश यथा समय सबको स्वप्न पाते हैं । पशुओंको भी आते हैं, परन्तु वे अपने स्वप्न को किसी अन्यके सामने बताने की शक्ति नहीं रखते। लोगोंकी किंवदन्ती है कि बिल्लीको चूहों के स्वप्न ही पाया करते हैं। अपने सपनों का हाल आदमी जानता है, औरोंको बताता भी है, पशु नहीं। ___ सपनोंके आनेका कारण हमारा अपना मन ही है जब इन्द्रियाँ सो जाती हैं और मन जागता है तब वह देहकी सुषुप्ति में सारे विश्व में दौड़-दौड़कर बे रोक टोक चक्कर काटा करता