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प्रकाशकीय
जैनधर्म एक मन्यात्मप्रधान धर्म है। इसमें जो कुछ भी विवेचन किया गया है वह मात्मा के उत्थान को लक्ष्य में रखकर ही किया गया है। प्रत्येक प्राणी सुख व शान्ति चाहता है, पर वह सुख स्वावलम्बन के बिना सम्भव नहीं है। परावलम्बन से होने वाला सुख न तो यथार्थ है और न स्थायी ही है। यथार्थ सुख तो कर्मबन्धन से छुटकर प्रात्मसिद्धि के प्राप्त कर लेने पर ही सम्भव है। प्रस्तुत संस्करण में प्रकाशित ध्यानस्तव (श्लोक ३) में यह निर्देश किया गया है कि प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति का नाम सिद्धि है और वह सिद्धि शुद्ध ध्यान के माश्रय से रत्नत्रयधारी के ही सम्भव है। इस प्रकार, प्रात्मप्रयोजन को सिद्ध करने के लिए न केवल जैन धर्म में ही ध्यान को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, बल्कि अन्य सभी मास्तिकतावादी सम्प्रदायों में भी प्रायः उसे उच्च स्थान दिया गया है।
प्रस्तुत संस्करण में ध्यानशतक और ध्यानस्तव ये दो ग्रन्थ एक साथ प्रकाशित किये जा रहे हैं। ध्यानशतक में कुल गाथायें १०५ और ध्यानस्तव में १०० श्लोक हैं। दोनों ही ग्रन्थों में अपनी-अपनी पद्धति से ध्यान का सुन्दर व महत्त्वपूर्ण विवेचन किया गया है, जिसे पढ़कर सहज ही शान्ति उपलब्ध होती है तथा हेयोपादेय का विवेक भी जाग्रत होता है।
इनका सम्पादन पं. बालचन्द्र शास्त्री ने हिन्दी अनुवाद के साथ किया है। ग्रन्थों के अन्त में कुछ महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट भी जोड़ दिये गये हैं तथा प्रारम्भ में उनके द्वारा जो प्रस्तावना लिखी गई है उसमें विषय का परिचय कराते हुए ध्यान के विषय में अच्छा प्रकाश डाला गया है। साथ ही, भगवद्गीता और पातंजल योगदर्शन जैसे योगप्रधान मन्य ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक रूप से भी विचार किया गया है। विषय की दष्टि से, दोनों ही ग्रन्धों की महती उपयोगिता एवं प्रतीव उपादेयता को दृष्टि में रखकर ही, वीर सेवा मन्दिर ने इनको इस रूप में प्रकाशित करना ठीक समझा एवं तदनुसार इनके प्रकाशन की व्यवस्था की गई।
वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, नई दिल्ली
गोकुलप्रसाद बैन, सचिव (साहित्य)