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________________ प्रस्तावना २५ और योगशास्त्रगत (७, २३-२५) उक्त पांच धारणाओं में अन्तिम तत्त्वरूपवती धारणा के अन्तर्गत है। पदस्थध्यान के विषय में पूर्वोक्त सभी ग्रन्थों में कहीं कोई विशेष मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता। उन सभी ग्रन्थों में प्रायः इस ध्यान में संक्षेप अथवा विस्तार से विविध प्रकार के मंत्रों को चिन्तनीय कहा गया है। विशेष इतना है कि अनेक ग्रन्थों में जहां पिण्डस्थ को प्रथम और पदस्थ को दूसरा ध्यान कहा गया है वहां द्रव्यसंग्रह की टीका और अमितगति-श्रावकाचार में प्रथमतः पदस्थध्यान का और तत्पश्चात् पिण्डस्थध्यान का उल्लेख किया गया है। रूपस्थध्यान के विषय में उपर्युक्त ग्रन्थों के कर्ता एकमत नहीं हैं-ज्ञानसार' (२८), ज्ञानार्णव' (१-४६, पृ.४०६-१६) योगशास्त्र (६, १-७) और वसुनन्दि-श्रावकाचार (४७२-७५) में आठ प्रातिहार्यों व समस्त अतिशयों से सहित अरहन्त के स्वरूप के चिन्तन को रूपस्थध्यान कहा गया है। भावसंग्रह में इस ध्यान को स्वगत और परगत के भेद से दो प्रकार बतलाकर अपने शरीर के बाहिर अपनी आत्मा के चिन्तन को स्वगत और पांच परमेष्ठियों के ध्यान को परगत रूपस्थध्यान कहा गया है (६२३-२५)। अमितगति-श्रावकाचार (१५-५४) में प्रतिमा में आरोपित परमेष्ठी के स्वरूप के चिन्तन को और ध्यानस्तव (३०) में जिनेन्द्र के नामाक्षर व धवल प्रतिबिम्ब के चिन्तन को रूपस्थध्यान का लक्षण बतलाया है। इसी ध्यानस्तव (३१) में आगे विकल्परूप में पूर्वोक्त ज्ञानसार आदि के समान प्रातिहार्यों आदि से विभूषित अरहन्त के ध्यान को भी रूपस्थध्यान कहा गया है। रूपातीतध्यान- ज्ञानसार में पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ के भेद से तीन प्रकार के अरहन्त के ध्यान का ही निर्देश किया गया है। वहां इस रूपातीत ध्यान का कहीं कोई निर्देश नहीं किया गया (१६-२८)। शेष सभी ग्रन्थों में प्रायः रूप-रसादि से रहित प्रमूर्तिक सिद्ध परमात्मा के चिन्तन को रूपातीतध्यान का कक्षण कहा गया है। ध्यान, समाधि और योग की समानार्थकता इन तीनों शब्दों के अर्थ में सामान्य से कुछ भेद नहीं हैं, क्योंकि वे तीनों ही शब्द प्रायः एकाग्रचिन्तानिरोधरूप समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरणस्वरूप स्वयम्भूस्तोत्र को लिया जा सकता है। १. ज्ञानसारगत इस श्लोक में यद्यपि रूपस्थध्यान का नामोल्लेख नहीं किया गया है, फिर भी प्रसंग के अनुसार उसमें प्रकृत रूपस्थध्यान का ही लक्षण कहा गया दिखता है। २. ज्ञानार्णव में इस ध्यान के प्रसंग में आद्य जिनभास्कर (आदि जिनेन्द्र-८), वृषभसेन आदि (पादि जिनेन्द्र के गणधर-१३), अरहन्त (२६), महेश्वर (२७), प्रादिदेव (२८), सन्मति, सुगत, महावीर (२६), वर्धमान और वीर आदि अनेक नामों का निर्देश किया है। ३. इस पद्धति में पिण्डस्थ और पदस्थ ध्यानों में कुछ विशेषता नहीं रही है। ४. योगशास्त्र में भी आगे (8, ८-१०) विकल्प रूप में जिनेन्द्रप्रतिमा के रूप के ध्यान को रूपस्थध्यान कहा है। ५. ध्यानस्तव में यहां रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों के प्ररूपक श्लोकों में जिस प्रकार के पद प्रयुक्त हुए हैं, जैसे-'देवं स्वदेह' (३१), 'कर्तारं चानुभोक्तारं (३३) आदि, उनसे ग्रन्थकार के अभिप्राय का ठीक से बोध नहीं होता। ६. (क) युजेः समाधिवचनस्य योगः, समाधिः ध्यानमित्यनान्तरम् । त. वा. ६, १, १२. (ख) योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तनिग्रहः। अन्तःसंलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधैः ।। प्रा. पु. २१-१२.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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