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ध्यानयतक
स्थित किसी का चिन्तन करता है, न शरीर के बाहिर स्थित किसी का चिन्तन करता है, न स्वगत रूप का चिन्तन करता है, और न परगत रूप का चिन्तन करता है। ऐसे पालम्बन से रहित ध्यान को गतरूप (रूपातीत) ध्यान माना गया है। प्रागे वहां यह भी सूचित किया गया है कि धारणा-न्येय से रहित इस ध्यान में चित्त का कोई व्यापार नहीं होता। उसमें इन्द्रियविषयों के विकार और राग-द्वेष भी क्षय को प्राप्त हो जाते हैं (६२८-३०)। यह विशेष स्मरणीय है कि यहां प्रकृत पिण्डस्थ प्रादि चार ध्यानों का निरूपण अप्रमत्त गुणस्थान के प्रसंग में ध्याता, ध्यान, ध्येय और फल इन चार अधिकारों के निर्देशपूर्वक ध्यान के प्रकरण में किया गया है (६१४-४१) ।
अमितगति-श्रावकाचार में रूपातीत ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि स्फटिक मणि में प्रतिबिम्बित जिनरूप के समान जो नीरूप-मूर्तिक शरीर से रहित-सिद्धस्वरूप आत्मा का ध्यान किया जाता है उसका नाम अरूप (रूपातीत) ध्यान है (१५, ५५-५६)।
द्रव्यसंग्रह की टीका में रूपातीत ध्यान का लक्षण निरंजन कहा गया है। उसका अभिप्राय यही समझना चाहिए कि कर्म-कालिमा से रहित जो सिद्धस्वरूप प्रात्मा का ध्यान किया जाता है वह रूपातीत ध्यान कहलाता है।
ज्ञानार्णव (१६, पृ. ४१९) और योगशास्त्र (१०-१) में चिदानन्दस्वरूप प्रमूर्तिक व शाश्वतिक उत्कृष्ट प्रात्मा के स्मरण को रूपातीत ध्यान कहा गया है।
वसुनम्दि-श्रावकाचार में वर्ण, रस, गन्ध मोर स्पर्श से रहित ऐसे ज्ञान-दर्शनस्वरूप परमात्मा के ध्यान को स्परहित (रूपातीत) ध्यान कहा गया है (४७६)।
ध्यानस्तव में प्रकृत रूपातीतध्यान के लक्षण में यह कहा गया है कि जो योगी प्रात्मा में स्थित, शरीर से भिन्न होकर उस शरीर के प्रमाण, ज्ञान-दर्शनस्वरूप, कथंचित् कर्ता, भोक्ता, अमूर्त, नित्य, एक, शुद्ध व क्रिया से सहित और रोष-तोष से रहित, उदासीन स्वभाव वाले, स्वसंवेद्य सिद्ध परमात्मा का ध्यान करता है उसके रूपातीत ध्यान होता है (३२-३६)। उपसंहार
ज्ञानसार में धर्मध्यान के प्रसंग में पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ के भेद से तीन प्रकार के अरहन्त के ध्यान की प्रेरणा करते हुए अपने नाभि-कमल आदि में स्थित उक्त अरहन्त के ध्यान को पिण्डस्थघ्यान कहा गया है (१६.२०) ।।
भावसंग्रह (६२०-२२), तत्त्वानुशासन' (१३४), अमितगति-श्रावकाचार (१५, ५०-५३), द्रव्यसंग्रह टीका (४८), बसुनन्दि-श्रावकाचार (४५९), ध्यानस्तव (२५-२८) और भावसंग्रह (वाम.-६६१) के अनुसार निज देहस्थ अरहन्त के ध्यान का नाम पिण्डस्थध्यान है। विशेषता यह रही है कि तत्त्वानुशासन में जहां ध्याता के पिण्ड (शरीर) में स्थित ध्येय के रूप में अरहन्त की सूचना की गई है वहां द्रव्यसंग्रह की टीका में उद्धत श्लोक के अनुसार देह का निर्देश न करके केवल स्वात्मचिन्तन को ही पिण्डस्थध्यान कहा गया है। वसुनन्दि-श्रावकाचार (४६०-६३) में विकल्परूप से नाभि में मेरु की कल्पना करके उसके अधस्तन व उपरिम अंगों में यथायोग्य अधोलोक व तिर्यग्लोक आदि लोक के विभागों की कल्पना करते हुए निज देह के ध्यान को भी पिण्डस्थ बतलाया गया है।
ज्ञानार्णव और बोगशास्त्र में इस पिण्डस्थध्यान के प्रसंग में पाथिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी पौर तत्त्वरूपवती (तत्त्वभू) इन पांच घारणाओं का निरूपण किया गया है। पूर्वोक्त ज्ञानसार आदि ग्रन्थों में जो अरहन्त के ध्यान को पिण्डस्थध्यान कहा गया है वह प्रकृत ज्ञानार्णव (२८-३०, पृ. ३८५)
१.xxx रूपातीतं निरञ्जनम् ॥ द्रव्यसं टी. ४८. में उद्धृत । २. यहां पिण्डस्थ आदि ध्यानभेदों का निर्देशन करके मतान्तर के अनुसार पिण्डस्थध्येय को सूचना
की गई है।