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________________ ध्यानशतक है वह मुनि ध्यान के उपरत हो जाने पर भी सदा अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन में तत्पर होता है (६५)। १० लेश्या-धर्मध्यानी के क्रम से उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होनेवाली पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन प्रशस्त लेश्यायें हुआ करती हैं जो तीव्र, मन्द व मध्यम भेदों से युक्त होती हैं (६६) । ११ लिंग-धर्मध्यानी का परिचय किन हेतुओं के द्वारा होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पागम, उपदेश, आज्ञा और निसर्ग से जो जिनोपदिष्ट पदार्थों का श्रद्धान होता हैं उससे तथा जिनदेव, साधु और उनके गुणों के कीर्तन आदि से उक्त धर्मध्यानी का बोध हो जाता है (६७.६८) । १२ फल-धर्मध्यान के फल का निर्देश यहां न करके लाघव की दृष्टि से उसका निर्देश प्रागे शुक्लध्यान के प्रकरण (गा. १३) में किया गया है । इस प्रकार उपयुक्त भावना आदि बारह अधिकारों के प्राश्रय से यहां (६८) धर्मध्यान की प्ररूपणा ससाप्त हो जाती है। ४ शुक्लध्यान जिन पूर्वोक्त भावना आदि बारह अधिकारों के द्वारा धर्मध्यान की प्ररूपणा की गई है उन बारह अधिकारों की अपेक्षा प्रस्तुत शुक्लध्यान की प्ररूपणा में भी रही है। उनमें से भावना, देश, काल और प्रासनविशेष इन चार अधिकारों में उसकी धर्मध्यान से कुछ विशेषता नहीं रही है । इसलिए उनकी प्ररूपणा न करके यहां शेष आवश्यक अधिवारों के ही प्राश्रय से शुक्लध्यान का निरूपण किया गया है। यघा ५पालम्बन-क्षमा, मार्दव, प्रार्जव और मुक्ति ये यहां शुक्लध्यान के पालम्बन निर्दिष्ट किये गये हैं (६६)। ६ क्रम-पृथक्त्ववितर्क सविचार, एकत्ववितर्क अविचार, सूक्ष्मक्रियानिवति और व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति के भेद से शुक्लध्यान चार प्रवार का है। इनमें प्रथम दो शुक्लध्यानों के क्रम का निरूपण धर्मध्यान के प्रकरण (४४) में किया जा चुका है। इसलिए उन्हें छोड़कर अन्तिम दो शुक्लध्यानों के क्रम का विचार करते हुए यहां यह कहा गया है कि मन का विषय जो तीनों लोक है उसका छद्मस्थ ध्याता क्रम से संक्षेप (संकोच) करता हुआ उस मन को परमाणु में स्थापित करता है और अतिशय स्थिरतापूर्वक ध्यान करता है । तत्पश्चात् केवली जिन उसे परमाणु से भी हटाकर उस मन से सर्वथा रहित होते हुए अन्तिम दो शुक्लध्यानों के ध्याता हो जाते हैं। वह किस प्रकार से उस मन के विषय का संक्षेप कर उसे परमाणु में स्थापित करता है तथा उससे भी फिर उसे किस प्रकार से हटाता है, इसे आगे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार समस्त शरीर में व्याप्त विष को मंत्र के द्वारा डंक में रोक दिया जाता है और तत्पश्चात् उसे अतिशय प्रधान मंत्र के योग से उस डंकस्थान से भी हटा दिया जाता है उसी प्रकार तीनों लोकरूप शरीर में व्याप्त मनरूप विष को ध्यानरूप मंत्र के बल से युक्त ध्याता डंकस्थान के समान परमाणु में रोक देता है और तत्पश्चात् जिनरूप वैद्य (मांत्रिक) उसे उस परमाणु से भी हटा देता है। आगे इसी बात को अग्नि और जल के दृष्टान्तों द्वारा भी पुष्ट किया गया है। इस प्रकार मन का निरोध हो जाने पर फिर क्रम से बचनयोग और काययोग का भी निरोध करके वह शैल के समान स्थिर होता हा शैलेशी केवली हो जाता है (७०-७६)। ७ ध्यातव्य-शुक्लध्यान के ध्येय का विचार करते हुए यहां यह कहा गया है कि पृथक्त्ववितर्क सविचार नामक प्रथम शुक्लध्यान में ध्याता पूर्वगत श्रुत के अनुसार अनेक नयों के पाश्रय से प्रात्मादि किसी एक वस्तुगत उत्पाद, स्थिति और भंग (व्यय) रूप पर्यायों का विचार करता है। इस ध्यान में चंकि अर्थ से प्रर्थान्तर, व्यंजन (शब्द) से व्यंजनान्तर और विवक्षित योग से योगान्तर में संक्रमण होता है; इसलिए उसे सविचार कहा गया है । वह वीतराग के हुआ करता है (७७-७८) । एकत्ववितर्क अविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान में ध्याता उपयुक्त उत्पादादि पर्यायों में से किसी एक ही पर्याय का विचार करता है। इस ध्यान में चित्त वायु के संचार से रहित दीपक के समान स्थिर
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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