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________________ धर्मध्याने ध्यातृनिरूपणम् कि बहुणा ? सव्वं चिय जीवाइपयत्यवित्थरोवेयं । सव्वनयसमूहमयं झाइज्जा समयसम्भावं ॥६२॥ कि बहुना भाषितेन ? 'सर्वमेव' निरवशेषमेव 'जीवादिपदार्थविस्तरोपेतम्' जीवाऽजीवाऽऽश्रव. बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षाख्यपदार्थप्रपञ्चसमन्वितं समयसद्भावमिति योगः, किंविशिष्टम् ? 'सर्वनयसमूहास्मकं द्रव्यास्तिकादिनयसनातमयमित्यर्थः, 'ध्यायेत् विचिन्तयेदिति भावना, समयसद्भावं' सिद्धान्तार्थमिति हृदयम्, अयं गाथार्थः ॥६२॥ गतं ध्यातव्यद्वारं, साम्प्रतं येऽस्य ध्यातारस्तान् प्रतिपादयन्नाह सव्वप्पमायरहिया मणो खीणोवसंतमोड़ा । झायारो नाण-धणा धम्मज्झाणस्स निद्रिा ॥६३॥ प्रमादाः मद्यादयः, यथोक्तम्-मज्जं विसय-कसाया निद्दा विकहा य पंचमी भणिया। सर्वप्रमादै रहिताः सर्वप्रमादरहिताः, अप्रमादवन्त इत्यर्थः, 'मुनयः' साधवः 'क्षीणोपशान्तमोहाश्च' इति क्षीणमोहाः सपकनिम्रन्थाः, उपशान्तमोहाः उपशामकनिर्ग्रन्थाः, च-शब्दादन्ये वाऽप्रमादिनः, 'ध्यातारः' चिन्तकाः, धर्मध्यानस्येति सम्बन्धः, ध्यातार एव विशेष्यन्ते-'ज्ञान-धनाः' ज्ञान-वित्ताः विपश्चित इत्यर्थः, 'निर्दिष्टाः' प्रतिपादितास्तीर्थकर-गणधरैरिति गाथार्थः ।।६३॥ उक्ता धर्मध्यानस्य ध्यातारः, साम्प्रतं शुक्लध्यानस्याप्याद्यभेदद्वयस्याविशेषेण एत एव यतो ध्यातार इत्यतो मा भूत्पुनरभिधेया भविष्यन्तीति लाघवार्थ चरमभेदद्वयस्य प्रसङ्गत एव तानेवाभिधित्सुराह एएच्चिय पुब्वाणं पुब्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा। दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो ॥६४॥ 'एत एवं' येऽनन्तरमेव धर्मध्यानध्यातार उक्ताः 'पूर्वयोः' इत्याद्ययोर्द्वयोः शुक्लध्यानभेदयोः पृथक्त्ववितर्कसविचारमेकत्ववितर्कमविचारमित्यनयोः, ध्यातार इति गम्यते, अयं पुनविशेषः-'पूर्ववराः' चतुर्दशपूर्वविदस्तदुपयुक्ताः, इदं च पूर्वधरविशेषणमप्रमादवतामेव वेदितव्यम्, न निन्यानाम, माष-तुष-मरुदेव्यादीनामपूर्वधराणामपि तदुपपत्तेः, 'सुप्रशस्तसंहननाः' इत्याद्यसंहननयुक्ताः, इदं पुनरोवत एव विशेषणमिति तथा 'द्वयोः' शुक्लयोः, परयोः उत्तरकालभाविनोः प्रधानयोवा सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति-युपरतक्रिया प्रतिपातिलक्षणयोर्थथासंख्यं सयोगायोगकेवलिनो ध्यातार इति योगः, एवं च गम्मए-सुक्कझाणाइदुगं वोली मागे प्रकृत ध्यातव्य द्वारका उपसंहार करते हुए सिद्धान्तार्थ के चिन्तन की प्रेरणा की जाती है बहुत कहने से क्या ? जो समय का सद्भाव-पागम का रहस्य-जीवाजीवावि पदार्थों के विस्तार से सहित और द्रव्याथिक व पर्यायाथिक आदि नयों के समूह स्वरूप है उस सभी का चिन्तन धर्मध्यानी को करना चाहिए ॥६२॥ प्रब धर्मध्यान के ध्याता मुमुक्षुमों का निरूपण किया जाता है धर्मध्यान के ध्याता ज्ञानरूप धन से सम्पन्न वे मुनि कहे गये हैं जो मद्य, विषय, कषाय, निद्रा पौर विकथारूप सब प्रमादों से रहित होते हुए क्षीणमोह-मोहनीय कर्म के क्षय में उद्यत-अथवा उपशान्तमोह-उक्त मोहनीय कर्म के उपशम में उद्यत हैं ॥६३॥ ये जो धर्मध्यान के ध्याता कहे गये है वे ही चूंकि प्रादि के दो शुक्लध्यानों के भी ध्याता हैं, प्रत एव उनका निरूपण फिर से न करना पड़े; इस लाघव की अपेक्षा कर अन्तिम दो शुक्लध्यानों के साथ उनका निर्देश यहीं पर-धर्मध्यान के ही प्रकरण में किया जाता है ये ही पूर्वोक्त धर्मध्यान के ध्याता पूर्व दो शुक्लव्यानों के-पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क अविचार ध्यानों के-ध्याता हैं । विशेष इतना है कि वे अतिशय प्रशस्त संहनन-बज्रर्षभनाराचसंहनन-से युक्त होते हुए पूर्वघर-चौदह पूर्वो के ज्ञाता (श्रुतकेवली) होते हैं। अन्तिम शुक्लध्यानों के सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति और व्युपरतक्रियाप्रतिपाति इन दो ध्यानों के-ध्याता कम से सयोगः केवली और प्रयोगकेवली होते है ॥६४॥
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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