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________________ बैंफा ८२८] धर्मादेकी संस्थाके नियम समझके अनुसार स्पष्ट रूपसे बिना अधिक विचार किये तुरन्त उसका अर्थ साफ़ हो जाता हो, ऐसी इबारत दूस्टकी दस्तावेज़में लिखना चाहिये । धर्मादे के जायज़ बनानेके लिये ऐसीही साफ़ इबारत की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि हो सकता है कि, लेनदारोंका रुपया मारनेके लिये जालसाजी कीगयी हो। दूस्ट जायज़ माना जाय इस मतलबके लिये बेहद जरूरी बात यह है कि दान या वसीयतके द्वारा दान देने वाला दान करनेके पश्चात् उस जायदादपरसे वास्तवमें अपने सब मालिकाना अधिकार हटाले और पूरी तौरसे दूस्टके हवाले करदे । उसकी मन्शा दान करनेकी थी या नहीं इसका प्रमाण दान करने वालेके पीछके कामोसे जाहिर होगा और विचार किया जायगा। अगर यह साबित हो कि उसने दान की हुई जायदाद या उसके किसी हिस्सेको अपने निजक कामों में लाया और देवमर्तिके पूजन श्रादिके कामों में नहीं लाया या यह साबित हो कि वह धर्मादा नहीं चाहता था और उसकी मन्शा ऐसी महीं थी तो देवमूर्तिमें अर्पणकी हुई जायदादका दान बेअसर हो जायगा। परिणाम यह निकलेगा कि दान करने वालेके विरुद्ध ज़ात खासकी डिकरीमें वह जायदाद कुर्क और नीलाम हो सकेगी तथा उसपर उत्तराधिकारका हक प्राप्त रहेगा, देखो--वाटसन् एन्उको बनाम रामचन्द्र 18Cal.10. कुंवर दुर्गानाथ बनाम रामचन्द्र 2 Cal. 341-349; 4 I. A. 525 4 Cal. 56, 12 Mad. 387. देवोत्तर दानके दस्तावेज़में जो नियम ठाकुरजी की पूजा, या धर्मादेके लिये नियत किये गये होंगे, उनकी पाबन्दी होगी-श्रीपति चटरजी बनाम खुदीराम बनरजी 41 C. L. J. 22; 82 I. C. 8401 A. I. R. 1925 Cal. 442. धर्मकर्ताको यह अधिकार नहीं है कि मन्दिरकी जायदादके कब्जेका मुस्तकिल पट्टा किसी दूसरेको जारी करे, देखो-रामनाथ चारयालू बनाम मंगाराव 22 L. W. 485; A. I. R. 1925 Mad: 1279 (2). ब्रजसुन्दरी बनाम लक्ष्मी 20 W. R. 95 (P.C.) वाले मामले में प्रिवी कौन्सिलने कहाकि-अगर हिन्दू अपनी निजकी देवमूर्तिके नामसे कोई जाया दाद खरीद करे और पूजनके लिये किसी पुजारीको नियुक्त करदे तो जायदाद उस देवमूर्तिकी नहीं हो जायगी बक्लि खरीद करने वालेकी निजकी जायदाद बनी रहेगी। जायज़ धर्मादा कायम करने के लिये सिर्फ यह ज़रूरी है कि कोई खास जायदाद खास मतलचके लिये अलहदा करदी जाय और जब यह मतलब स्पष रूपसे और स्वाभाविक रीतिसे धार्मिक या खैराती हो तो वह दृस्ट सिर्फ इस वजहसे नाजायज़ नहीं हो जायगा कि वह उस कायदेके विरुद्ध है जो काया 126
SR No.032127
Book TitleHindu Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shukla
PublisherChandrashekhar Shukla
Publication Year
Total Pages1182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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