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________________ किस को मार डाला तब तुम्हें अकल आई कि यह मैंने क्या कर दिया? यह तो मैं चाहता भी नहीं था और यह हो गया। अब मैं क्या करूं? यह मेरे बावजूद हो गया। फिर तुमसे बेहतर वह आदमी जब क्रोध उठ रहा होता है तब जानता है। तब कुछ किया जा सकता है। ज्यादा नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो उठ आया, उठ आया। फिर भी थोड़ा किया जा सकता है। कम से कम कृत्य बनने से रोका जा सकता है। विचार तो बन गया। तुम तो विकृत हो गये। तुम्हारे भीतर तो जहर फैल गया। इतना तुम कर सकते हो कि दूसरे तक जहर फैलने से रोक लो। फिर तीसरा वह प्रतिभावान बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति है कि क्रोध अभी उठा भी नहीं और जानता है। वह अपने को भी विषाक्त होने से बचा लेता है। जिसने बीज को पकड़ लिया वह वृक्ष से बच जाता है। 'मदमति उस तत्व को सुनकर भी मूढ़ता को नहीं छोड़ता है।' कितनी बार तुमने सुना नहीं मगर कुछ बात है कि छूटती नहीं, गले में अटकी ही रहती है। सुनते -सुनते-सुनते शब्द याद हो जाते हैं, अर्थ पकड़ में नहीं आता। सुनते -सुनते पंडित हो जाते हो, प्रज्ञा का जन्म नहीं होता। .......वह बाह्य व्यापार में संकल्परहित हुआ विषय की लालसावाला होता है।' और तब कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि सुनते-सुनते, साधु-संतों का सत्संग करते-करते तम्हें भी लगता है कि कुछ सार नहीं है संसार में, भोग में कुछ पड़ा नहीं है। ऐसा ऊपर-ऊपर लगने लगता है, खोपड़ी में लगने लगता है। तुम्हें भीतर अभी ऐसा कुछ हुआ नहीं है तो तुम बाहर के संसार को छोड़ देते हो, जंगल भाग जाते हो। बैठ जाते गुफा में। सोचते संसार की, बैठे गुफा में हो। हाथ में माला लिये गिनती मनकों की करते, भीतर गिनती रुपयों की चलती। बाहर कुछ, भीतर कुछ हो जाता है। और जो व्यक्ति बाहर कुछ, भीतर कुछ हो गया, वह रुग्ण हो गया, बुरी तरह रुग्ण हो गया। वह विक्षिप्त हो गया क्योंकि खंडित हो गया। अखंड में है स्वास्थ्य, खंडित में है विक्षिप्तता। फिर जितने तुम्हारे भीतर खंड हो जायें उतने ही तुम रुग्ण होते चले जाते हो। मैंने पंद्रह-बीस वर्षों में न मालूम कितने साधु-संतों को करीब से देखा। उनमें से निन्यानबे प्रतिशत लोग रुग्ण हैं। उनको इलाज की आवश्यकता है। वे महात्मा तो हैं ही नहीं, विमुक्त तो हैं ही नहीं, विक्षिप्त अवस्था है। लेकिन उनकी विक्षिप्त अवस्था की भी पूजा चल रही है। और जब पूजा चलती है तो वह आदमी भीतर-भीतर अपने को किसी तरह सम्हाले रहता है... सम्हाले रहता है। अब यह पूजा भी छोड़ते नहीं बनती। यह अहंकार के लिए मजा आना शुरू हो गया। प्रतिष्ठा मिलती, पद मिलता, आदर मिलता। उपवास भी करता, जप-तप भी करता, सब किये चला जाता और भीतर एक ज्वालामुखी धधकता है। निर्विकल्पो बहिर्यत्नात्.....। बाहर के व्यापार में ऐसा लगता है, अब इसको कोई रस नहीं। अंतर्विषयलालसः।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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