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________________ तूफानी ज्वार में कागदीया नाव की क्या बिसात, हो न हो! हमारी नाव तो कागज की है और तूफानी सागर है। इस कागज की नाव में पार करने का तय किया है। डूबना सुनिश्चित है। कुछ और नाव बनाओ। कुछ ऐसी नाव बनाओ, जो कागज की न हो। कुछ ऐसी नाव बनाओ जो वस्तुत: उस पार ले जाये। यह मन की नाव तो कागज की नाव है, ध्यान की नाव बनाओ। यह दृश्य में उलझे -उलझे तो बस आंगन भर धूप में मुट्ठीभर छाव की क्या बिसात, हो न हो! यह जो तुम्हारी अभी विचारों के दवारा जो तुमने थोड़ी-सी समझ का भ्रम पाल रखा है, यह बहुत काम नहीं आता। आंगन भर धूप में मुट्ठीभर छांव की क्या बिसात, हो न हो! यह जरा-जरा में खो जाती है। यह कभी काम नहीं आती। जब जरूरत नहीं होती तब तो मालूम होती है, जब जरूरत होती तब खो जाती है। जब तुम घर में बैठे हो, किसी ने कोई अपमान नहीं किया तब तुम बड़े शांत मालूम पड़ते हो। किसी ने जरा-सा अपमान कर दिया, सब शांति खो गई। जब फिर शांत हो जाओगे तो फिर सोचोगे कैसी भूल हो गई। न करते तो अच्छा था। अब यह बड़े मजे की बात है, तुम्हारी समझ तभी आती है जब काम नहीं होता। और जब काम होता है तभी खो जाती है। यह तो ऐसे ही है कि जब जरूरत पड़े, खीसे में हाथ डालो, पैसे नदारद। और जब जरूरत न रहे, हाथ डालो, पैसे खनखनाने लगे। यह तो बड़ी मुश्किल हो जाये। जब जरूरत हो तब गरीब तब बैंक देने को तैयार नहीं। और जब जरूरत न हो, तब बैंक कहती है, आओ; आपका ही है सब-मगर जब जरूरत न हो।। तुमने ख्याल किया? तुम्हारी समझ तभी काम आती जब काम की नहीं होती। कोई जरूरत ही नहीं होती। हा, शास्त्र पढ़ रहे हैं तो तुम बड़े बुद्धिमान होते बाजार में, दूकान में, जीवन के संघर्ष में सब बुद्धि खो जाती है। भेद भरे राज खुले, सुख-दुख जब मिले-जुले बांवरिया दृष्टि धुली, आंसू के तुहिन घुले कालजयी राह पर क्षणजीवी पांव की क्या बिसात, हो न हो! यह हमारा जो पांव है, बड़ा क्षणजीवी है। ये जो विचार के चरण हैं इनसे तुम अनंत के द्वार तक न पहुंच पाओगे| कोई और पैर चाहिए। कोई और ज्योति चाहिए, जो इतने जल्दी-जल्दी बुझ न जाती हो। ऐसी ज्योति चाहिए जो बुझती ही न हो| कालजयी ज्योति चाहिए। ऐसा कुछ चाहिए जिसे
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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