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________________ 'मुझको कहां उपदेश है अथवा कहां शास्त्र है?' और जब उपदेश ही न हो तो शास्त्र नहीं बनता। शास्त्र तो उपदेश का ही संग्रहीत रूप है। फिर कोई वेद, कुरान, बाइबिल, गीता कुछ अर्थ नहीं रखते। 'फिर कहां शिष्य, कहां गुरु?' जब उपदेश ही नहीं हो सकता तो कौन होगा गुरु और कौन होगा शिष्य? ' और कह। पुरुषार्थ है त्र: ' फिर न कुछ पाने को बचा तो पुरुषार्थ का भी कोई सवाल नहीं है। समझो। जनक बोल तो रहे हैं। यह वचन तो बोल ही रहे हैं। अष्टावक्र ने इतना लंबा उपदेश भी दिया है और जनक भी कुछ कंजूसी नहीं कर रहे हैं बोलने में। फिर भी वह कहते हैं, कहां उपदेश? तो बात कुछ समझ लेनी चाहिए। बुद्धपुरुष बोलते हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं, बुद्धपुरुषों से बोला जाता है ऐसा कहना ठीक है। फूल खिलते हैं जैसे, सुगंध झरती है जैसे, बादल उमड़-घुमड़ कर आते हैं जैसे, और वर्षा होती है जैसे, दीया जलता है तो प्रकाश झरता है जैसे, ऐसे बुद्धत्व से रोशनी झरती है, सुगंध झरती है। मगर उपदेश देने की आकांक्षा नहीं है। इसलिए बुद्ध ने चालीस साल बोलने के बाद कहा है कि मैं कभी भी नहीं बोला। मैं बोला ही नहीं। कठिन हो जाती है बात। क्योंकि बुद्ध के वचन इतने हैं, सैकड़ों शास्त्र निर्मित हुए जितने वचन बुद्ध के हैं उतने किसी के भी नहीं हैं। बाइबिल और कुरान सब बहुत छोटी-छोटी किताबें रह जाती हैं। बुद्ध के अगर सारे वचन संग्रहीत होते हैं तो पूरा एक पुस्तकालय निर्मित होता है एक पूरा एनसाइक्लोपीडिया-इतना बोले हैं और आखिर में कहते हैं कि मैं बोला नहीं। बात फिर भी ठीक कहते हैं। बोले नहीं, क्योंकि बोलना किससे, दसरा कोई है नहीं। लेकिन कभी-कभी तुमने ऐसी घड़ी जानी है, जब तुम अकेले बैठे हो और गीत गुनगुनाते हो? तब तुम किसी को कह नहीं रहे, अपनी मौज में कह रहे हो। बुद्ध से वचन निकले हैं, झरे हैं, जैसे झरनों से जल बह रहा है, जैसे वृक्षों से फूल निकल रहे हैं, ठीक ऐसे। जैसे पक्षी गीत गुनगुना रहे हैं, ठीक ऐसे। इसमें कुछ चेष्टा नहीं है, प्रयोजन नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। दीया जल जाएगा तो रोशनी निकलेगी। और फूल खिलेगा तो गंध भी उड़ेगी। ऐसे ही बुद्ध से वचन उड़े हैं। __ठीक वही जनक कह रहे हैं, कहा उपदेश, कहां शास्त्र? कहां शिष्य, कहां गुरु? कैसा पुरुषार्थ? और अंतिम सूत्र क्व चास्ति क्व च व नास्ति क्यास्ति चैक क्व च दवयम्। बहु नात्र किमुक्तेन किंचित्रोत्तिष्ठते मन।। 'कहां अस्ति है, कहां नास्ति है, अथवा कहां एक है और कहां दो हैं? इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन, मुझको तो कुछ भी नहीं प्रकाश करता है।' यह आखिरी बात।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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