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________________ हैं, तुम दोनों को जाकर कह आओ कि आपकी जीत बिलकुल निश्चित है, लिखकर दे सकता हूं। तुम लिखकर ही दे आना। उन्होंने कहा, फिर पीछे फंसेंगे! मैंने कहा, तुम फिक्र छोड़ो। एक ही जीतेगा, दोनों तो जीतनेवाले नहीं हैं। जो हारा उसकी तुम फिकर ही छोड़ देना। और वह कोई तुम्हारे पीछे मुकदमे थोड़े ही चलाएगा कौन फिक्र करता है! यही हुआ। वह दोनों राष्ट्रपतियों को जाकर दे आए। एक जीत गया। जो जीत गया, उसके पास वह पहुंच गये बाद में वह बड़ा प्रसन्न, उसने फोटो भी साथ उतरवाए, फिर सर्टिफिकेट भी लिखकर दिया। तबसे उनका ज्योतिष बहुत चल रहा है। जब राष्ट्रपति तक की घोषणा कर दी! तो होशियार दोनों नाव पर सवार हो जाते हैं। वह दोनों को दान दे देंगे। जो भी आएगा कल ताकत में, दस हजार दिया तो दस लाख निकल लेंगे। लाइसेंस है और हजार उपाय हैं। चोर अगर दे. तो भी चोरी का इंतजाम पहले कर लेता है। अहंकारी अगर विनम्र भी बने, तो विनम्रता में भी अहंकार को ही पोषित कर लेता है। भागने का इतना सुगम उपाय नहीं है। पाप से पुण्य में जाने का कोई उपाय नहीं है। पापी और पुण्यात्मा एक ही खेल के हिस्सेदार हैं, साझीदार हैं। परम धर्म कहता है, अकर्ता भाव-न पुण्य, न पाप। दोनों मैंने नहीं किये। और अगर दोनों हुए, तो परमात्मा जाने। वह परम ऊर्जा जाने। यही तो कृष्ण से निकला अर्जुन के लिए गीता में कि तू निमित्तमात्र हो जा। उपकरणमात्र। जो हो, होने दे। जैसा हो, वैसा ही होने दे। तू अपने को बीच में मत ला। वही अष्टावक्र का सूत्र है -कहां प्रीति, कहां विरति; कहां जीव, कहां ब्रह्म? सर्वदा स्वस्थ, कूटस्थ, अखंड़ रूप मुझको कहां प्रवृत्ति है, कहां निवृत्ति है, कहां मुक्ति है, कहां बंध है? 'उपाधिरहित शिवरूप मुझको कहां उपदेश है अथवा कहां शास्त्र है रम कहा शिष्य है और कहा गुरु है और कहां पुरुषार्थ है?' यह शिखर के बिलकुल करीब आने गो। क्योपदेश क्व वा शास्त्रं क्व शिष्यः क्व च आ गुरुः। क्व चास्ति पुरुषार्थो वा निरुपाधे शिवस्य में।। मैं निरुपाधि में ठहर गया। न ऐसा ह न वैसा हां मैं नेति नेति में पहुच गया न साधु, न असाधु, न पापी, न पुण्यात्मा; न बुरा, न भला; न आत्मा, न ब्रह्म, मैं ऐसी उपाधिरहित दशा में आ गया हूं। अब यहां मेरे ऊपर कोई भी वक्तव्य लागू नहीं होता। 'उपाधिरहित शिवरूप मुझको कहा उपदेश?' अब किससे तो मैं उपदेश लूं और किसको मैं उपदेश दूं? उपदेश में तो स्वीकार कर ली गयी बात कि दो होने चाहिए। गुरु-शिष्य तभी तो बन सकते हैं न, जब दो हो। कोई कहे, कोई सुने, कोई दे, कोई ले। जनक कहते हैं, अब कैसा उपदेश? न तो मैं ले सकता उपदेश, क्योंकि दूसरा कोई है नहीं जिससे ले लूं और न मैं दे सकता, क्योंकि दूसरा कोई है नहीं जिसको मैं दे दूं। यह परम घड़ी आ रही, यह परम सौभाग्य का क्षण है जब कोई व्यक्ति ऐसी दशा में आता है जहां उपदेश देना-लेना भी संभव नहीं।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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