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________________ उस अनजान खिलाड़ी का तो बहुत निठुर खिलवार है विधना के बस इसी खेल में यह मिट्टी लाचार है यह जो दो में बंटा होना है, इसको तुम विधि पर मत टालो। तुम्हारे गायक, तुम्हारे विचारक, तुम्हें सांत्वना देने वाले लोग इसे टालते हैं कि यह विधि का खेल है। यह विधि का खेल नहीं। समझो! यह तुम्हारा ही बनाया हुआ जाल है। कोई तुम्हें बांट नहीं रहा है, तुमने बंटने का निर्णय कर लिया है। तुम ही उत्तरदायी हो, कोई और नहीं। इसीलिए तो अष्टावक्र कहते हैं कि श्रवणमात्रेण। समझो। अगर किसी और ने तुम्हारे जीवन को खंड-खंड किया हो, तो तुम अखंड न कर सकोगे। जब कोई और खंड-खंड करता है तो तब ही होगा अखंड जब वही अखंड करेगा, तुम्हारे किये क्या होगा? किसी ने तुम्हें गाली दी और तुम कहते हो कि मैं इसलिए दुखी हो रहा हूं कि उसने गाली दी। तब तो तुम अपने दुख के मालिक न रहे। जब वह गाली देना बंद करेगा तो शायद तुम दुखी न होओ। लेकिन वह गाली देना बंद करेगा, यह तुम्हारे हाथ में नहीं। लेकिन किसी ने गाली दी और तुम दुखी न हुए, या दुखी हुए तो भी तुमने जाना कि यह दुखी होना मेरा ही निर्णय है-गाली आए और जाए और मैं बिना दुखी हुए भी रह सकता हूं अस्पर्शित तो तुम मालिक हो गये। अब दूसरे के हाथ में कुंजी न रही तुम्हारे जीवन की| नहीं, विधि पर मत टालो। बात तो सच है कि जीवन दो में बंटा है, लेकिन तुमने बांटा है, किसी भाग्य ने नहीं। बांटने की तरकीब को पहचान लो तो तुम अनबंटे हो जाओ। और तुम अनबंटे हो जाओ तो वही तो सारे योग का लक्ष्य है। सारे अध्यात्म की आकांक्षा। एक हो जाओ, अद्वय हो जाओ, दो न रह जाएं, रात और दिन दो न रहें, जीवन और मृत्यु दो न रहें, सुख और दुख दो न रहें, इन दोनों में तुम्हें समभाव आ जाए, तुम इन दोनों में एक को ही देखने में समर्थ हो जाओ। यह हो सकता है। थोड़े साक्षी बनने की बात है। सुख को भी देखो और देखते क्षण में सिर्फ देखने वाले रहो, उलझ मत जाओ, तादात्म्य मत कर लो, ऐसा मत कहो कि मैं सुखी हूं, इतना ही कहो कि सुख होता है और मैं देख रहा हूं और मैं देख रहा हूं और मैं देख रहा हूं। तुम्हारा देखना अछूता खड़ा रहे, कर्ता न बने, भोक्ता न बने। दुख आए, तब भी देखो-दुख है, देख रहा हूं। काटे चुभे कि फूल मिलें, देखते रही। धीरे - धीरे अपने को द्रष्टा में थिर कर लो। धीरे - धीरे अपने केंद्र पर खडे हो जाओ। कोई भी आए तुम्हारी अंतर्शिखा कंपित न हो, तुम अकंप हो जाओ। उस अकंपता में जो अनुभव होगा, वही सत्य है। उसे कोई ब्रह्म कहता है, कोई निर्वाण, कोई मोक्ष। लेकिन उस अकंप दशा में जो जाना जाता है, वही जानने योग्य है, वही सच्चिदानंद है। ____ इस लंबी तीर्थयात्रा में जनक की जिज्ञासा के कारण, मुमुक्षा के कारण अष्टावक्र की अनुकंपा करुणा के कारण खूब रस बहा। एक ने दूसरे पर रस उलीचा। तुम अगर थोड़े भी सजग हो तो कुछ बूंदें तुम्हारे हाथ जरूर पड़ गयी होंगी। कल किसी ने एक प्रश्न पूछा था कि अष्टावक्र की बात सुनने मात्र से जनक को ज्ञान हो गया
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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