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________________ बहरा आदमी सुने और ऐसे देखा जैसे अंधा आदमी देखे, तो तुम गंगा के किनारे आकर भी अस्वच्छ रह जाओगे। तीर्थ पर पहुंचकर भी तीर्थ तक पहुंचना न हो पाएगा यह एक अपूर्व यात्रा थी। एक दृष्टि से बहुत लंबी महीनों -महीनों तक इसमें हमने इबकियां लगायीं। एक दृष्टि से बड़ी छोटी-श्रवणमात्रेण। एक शब्द भी कान में पड़ गया हो तो जगाने के लिए पर्याप्त। इतने –इतने ढंग से अष्टावक्र और जनक ने वही-वही बात कही, शायद एक बार चूको तो दूसरी बार हो जाए, दूसरी बार चूको तो तीसरी बार हो जाए। नयी-नयी बातें नहीं कही हैं, नये-नये ढंग से भले कही हों। मौलिक बात एक थी कि किसी भांति दवंदव के पार हो जाओ, दवंदवातीत हो जाओ, तो महासुख की वर्षा हो जाए। महासुख की वर्षा हो ही रही है, तुम वंद्व के कारण उससे वंचित रह जाते हो। सुख बरस रहा है, तुम्हारी गगरी फूटी है। तो तुम भर नहीं पाते। तुम कहते हो, सुख क्षणभंगुर है। गगरी फूटी हो तो पानी क्षण भर ही टिकता है। दोष पानी का नहीं है, दोष गगरी का है। गगरी न फूटी हो, तो पानी सदा के लिए टिक जाए। अमृत बरस रहा है, एक क्षण को भी उसकी रसधार रुकती नहीं, अखंड़ है उसकी रसधार, लेकिन हम वंद्व में उलझे हैं तो चूक जाते हैं। एक तरफ दर्दीला मातम एक तरफ त्यौहार है। विधना के बस इसी खेल में यह मिट्टी लाचार है एक तरफ वीरान सिसकता एक तरफ अमराइयां एक तरफ अर्थी उठती है एक तरफ शहनाइयां एक तरफ कंगन झड़ते हैं एक तरफ सिंगार है विधना के बस इसी खेल में यह मिट्टी लाचार है लुटता कभी पराग पवन में कहीं चिता की राख है किरण जादुई खड़ी कहीं पर कहीं वितप्त सलाख है एक तरफ है फूल सेज पर एक तरफ अंगार है विधना के बस इसी खेल में यह मिट्टी लाचार है ऋण पर है अस्तित्व हमारा उम्र सूद में जा रही जब सब हिसाब देना होगा घड़ी निकट वह आ रही हाय हमारी देह सांस क्या सब का सभी उधार है विधना के बस इसी खेल में यह मिट्टी लाचार है दुख ही दुख ज्यादा है जग में सुख के क्षण तो अल्प हैं सौ आंसू पर एक हंसी यह विधना का संकल्प है
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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