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________________ इतना ही है कि तुम सुन ही नहीं रहे। जनक ने सुना और जाग गये। तुम सुन ही नहीं रहे। शायद कारण यह होगा कि तुम जागने के लिए इतने उत्सुक हो कि तुम सुन ही नहीं रहे जब मैं तुमसे बोल रहा हूं तब भी तुम अपना गणित बिठाते रहते हो - इसमें क्या-क्या करने जैसा है? तुम सोचते रहते भीतर - भीतर कि ही, यह बात ठीक है, नोट कर लो, याद करके रख लो, इसको करके देखेंगे। तुम जब सुन रहे हो तब सुन नहीं रहे तब भी तुम गणित बिठा रहे हो। तभी तुम चूकते चले जा रहे हो। जनक ने सिर्फ सुना। उसने कोई गणित न बिठाया। उसने ऐसे सुना जैसे कोई पक्षियों के गीत को सुनता है। उसने ऐसे सुना जैसे कोई संगीत को सुनता है। तुम जब संगीत को सुनते हो तब तुम क्या सुनते हो? न तो कोई अर्थ लगाते, न व्याख्या करते, न कहते कि ही, इससे मैं राजी हूं इससे मैं राजी नहीं हूं; यह मेरे मन के अनुकूल, यह मेरे मन के अनुकूल नहीं, यह मेरे शास्त्र के अनुसार, यह मेरे शास्त्र के अनुसार नहीं, संगीत सुनते वक्त तुम लवलीन हो जाते हो। तुम यह सोचते नहीं। संगीत कोई सिद्धात तो नहीं है। संगीत तो एक तरंग है, एक रस की धार है। जनक ने ऐसे सुना जैसे कोई संगीत को सुनता है। तुम ऐसे सुनते हो जैसे कोई विज्ञान को सुन रहा हो। तो हिसाब लगाते रहते हो। तुम्हारे सुनने में भर भूल है। कोई पूर्वभूमिका की तैयारी नहीं है। न कोई जरूरत है। तुम्हारे सुनने में भूल है, तुम सुन नहीं रहे। सुनते वक्त तुम्हारे मन में हजार-हजार विचार चल रहे हैं, योजनाएं चल रही हैं। तुम कहीं पहुंचने को आतुर हो तुम कुछ होने के लिए उत्सुक हो। तो जो आदमी भी कुछ बनने के लिए, होने के लिए आतुर है, वह अष्टावक्र की बात न सुन पाएगा। क्योंकि अष्टावक्र कह रहे हैं, कुछ होने को नहीं है, कुछ जाने को नहीं है, कहीं पहुंचना नहीं है। कोई मंजिल नहीं है। तुम जहां हो, बस यही जगह है। कहीं और कोई जगह नहीं है। इसी क्षण में शात, मौन जाग जाओ, तृप्ति बरस उठेगी। 'क्या बिना किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तैयारी के तत्काल संबोधि घटना संभव है ? ' तुम्हारा मन कैसे-कैसे गणित बिठाए चला जाता है। 'क्या बिना किसी भी प्रकार की कोई-न-कोई तो तरकीब होगी, जो तुमसे छिपायी जा रही है। जिसके कारण तुम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो रहे हो। 'क्या बिना किसी भी प्रकार की इन्हीं बातों के कारण तुम्हें उन लोगों की बातें ठीक लगती हैं जो तुम्हें तैयारी बताते हैं। वह कहते हैं, देखो, पहले आचरण सुधारो। बात जंचती है कि आचरण न सुधारेंगे तो भगवान कैसे मिलेगा? जैसे भगवान के मिलने से आचरण के सुधारने का कोई भी संबंध हो सकता है! यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम संगीत सुनने जाओ और तुम्हें संगीत में रस न आए तो कोई कहे पहले आचरण सुधारो । पहले जाकर आचरण ठीक करके आओ, तब संगीत समझ में आएगा। जैसे कि आचरण से संगीत के समझने का कोई भी संबंध हो, कोई भी लेन-देन हो !
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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