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________________ रखो, मुझे धोखा मत दो। न सृष्टि है, न स्रष्टा, तो ब्रह्मा कैसे ? सृष्टि नहीं तो संभालनेवाला कौन ? और संहार नहीं होता तो कौन शिव है? कोई नहीं है। जो है, अद्वय एक उस जगह मैं खड़ा होकर कह रहा हूं कि यहां कुछ भी नहीं है सब सपना है, और तब तक दिखायी पड़ता है जब तक तुमने अपने को जगाया नहीं। सब नींद में देखी गयी बातें हैं। सब स्वप्न में देखे गये ख्याल हैं। 'कौन साध्य है और कहां साधन, अथवा कहा साधक और कहां सिद्धि ?' यह आखिरी बात मालूम होती है कहा सिद्धि ? अब तुम समझो, सिद्धि का लक्षण ही यही है। सिद्ध होने का अर्थ ही है कि जहां सिद्धि भी व्यर्थ हो जाए। जो सिद्धि में उलझ गया, वह सिद्ध होते-होते चूक गया। पतंजलि ने पूरा एक अध्याय लिखा है योगसूत्रों में सिद्धियों का। सिर्फ यह बताने को कि जागरूक रहना, ऐसी-ऐसी घटनाएं घटेंगी, उलझ मत जाना। नहीं तो संसार से बचे, तो फिर स्वर्ग में उलझ गये। बाहर से बचे तो भीतर उलझ गये। बाहर का उपद्रव किसी तरह गया तो भीतर के उपद्रव में लीन हो गये। बाहर का जादू टूटा तो भीतर का जादू पकड़ लिया, लेकिन जादू जारी रहा, नींद न खुली। सिद्ध वही है जिसके भीतर अब कोई सिद्धि भी नहीं रही। जो इतना सरल हो गया है। यह परमसिद्धि की अवस्था है। ऐसा व्यक्ति तो हवा का झोंका है। जल की धार है। पानी की लहर है। इतना ही सरल है। सरलता सिद्धि है। शून्यता सिद्धि है। सिद्धि के भी पार हो जाना सिद्धि है। कल किसी का प्रश्न था। उत्तर मैंने नहीं दिया, आज के लिए छोड़ रखा था। पूछा है, सिद्ध कौन ? जो असंग वह अभंग जो अकेला है, जो इतना अकेला है कि अब अकेलापन भी न बचा, उसी को कहते असंग और जो असंग है, वह अभंग है। उसका अब खंड़न नहीं हो सकता है। उसके अब टुकड़े नहीं हो सकते हैं। मैं, तू यह, वह, सब टुकड़े समाप्त हो गये। जो असंग वह अभंग और ऐसी अभंग दशा को सिद्ध कहा है। महाराष्ट्र में सिद्धों के वचन, बहुत से वचन अभंग कहलाते हैं। वे इसीलिए अभंग कहलाते हैं। वे एक ऐसी चित्त की दशा से पैदा हुए हैं जहां कोई विभाजन नहीं रहा। अंग्रेजी में जो शब्द है इनडिवीजुअल, वह ठीक शब्द है अभंग के लिए। इनडिवीजुअल का अर्थ होता है, जिसके विभाजन न हो सकें। अविभाज्य जो है, खंड़ न हो सकें। जिसके खंड़ हो जाएं, वह भीड़, वह अभी व्यक्ति नहीं। सिद्धि की जो परमदशा है, वह अभंग होने की दशा है। अद्वय, दो नहीं बचे, इतना भी खंड़ नहीं रहा कि दो बचें। अनेक की तो बात ही छोड़ दो, दो भी नहीं बचे । अपना अपने में बो अंत: जग
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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