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________________ भर लाया। पश्चिम में एक बहुत बड़ा चित्रकार हुआ हैदोरेक। उसके पास सैकड़ों शिष्य चित्रकला सीखने आते थे। उसकी परीक्षा का ढंग बड़ा अनूठा था। ऐसे ही रहा होगा जैसा अष्टावक्र का। दोरेक अपने शिष्यों की परीक्षा ऐसे लेता था कि वह खुद एक चित्र बनाता और उसमें कहीं कोई ऐसी बारीक कमी छोड़ देता, जिसको उसकी हैसियत का चित्रकार ही पहचान सकता है। बाकी को तो कमी दिखायी पड़ ही नहीं सकती। और वह अपने शिष्यों को कहता कि अगर इसमें तुम्हें कोई कमी दिखती हो तो उसे पूरा कर दो। जो शिष्य पूरा कर देता उसे कभी-कभी तो ऐसा होता कि ब्रुश की जरा-सी एक लकीर, और उसने छोड़ दी है, कि जरा-सा एक चिह्न, और देखने पर किसी को भी समझ में नहीं आएगा कि कोई कमी छूट गयी है, कोई कमी छूट गयी है। उसके चित्र सर्वांग सुंदर चित्र होते थे, वह अनूठा कलाकार था। जिंदगी में हजारों लोगों ने उससे सीखा चित्र बनाना, लेकिन दो -चार ही उत्तीर्ण हुए क्योंकि पहले तो जो देखता वह कह देता कि इसमें कोई कमी नहीं है, घंटों देखता और कहता इसमें कमी है ही नहीं। इसमें कोई कमी नहीं है। कभी-कभी कोई यह सोचकर कि गुरु कहते हैं, कमी होनी चाहिए, तो खोजबीन कर कुछ कमी खोज लेता जो कमी थी ही नहीं। तो वह कुछ उपाय करता तो चित्र और बिगड़ जाता। कभी-कभी ऐसा होता कि कोई शिष्य पहचान पाता कहां कमी है। जो उस कमी को पहचान लेता उसको दोरेक उत्तीर्ण कर देता। मुझे लगता है, परीक्षा का ठीक उपाय उसने खोजा था। वह कमी, दोरेक की चित्तदशा ही जिस शिष्य में आ गयी हो, उसी को दिखायी पड़ सकती थी। और किसी को नहीं दिखायी पड़ सकती थी। जो दोरेक के साथ इतना आत्मलीन हो गया है, जो अब शिष्य नहीं रहा है, वस्तुत: गुरु ही हो गया है। तुम अगले सूत्र में पाओगे। अगले सूत्र में जनक कहते हैं, और अब कैसा गुरु, कैसा शिष्य! वह अंतिम सत्र है। और जनक उसकी पात्रता घोषित कर रहे हैं। उन्होंने भर दिये छिद्र जो-जो छोड दिये थे। छिद्र बड़े बारीक थे। अगर कोई नकल कर रहा होता तो डरता कि गुरु के खिलाफ बोले कि झंझट हो जाएगी। स्फुरण भी नहीं, प्रत्यक्ष ज्ञान भी नहीं, ज्ञान का कोई फल भी नहीं, न कोई मुक्ति है, न कोई मोक्ष है, न कोई बद्ध -है, न कोई बंधन है। न संसार, न निर्वाण। 'अपने स्वरूप में अदवय मुझको कहां सृष्टि है और कहां संहार है, कहां साध्य है, कहा साधन है अथवा कहां साधक है और कहा सिद्धि है?' क्व सृष्टि: क्व च संहार: क्व साध्य क्व च साधनम्। क्व साधक: क्व सिद्धिर्वा स्वस्वरूपेठहमदवये।। मैं अपने अद्वय रूप में खड़े होकर देख रहा हूं। निवेदन करता हूं, जनक कहने लगे, मुझे क्षमा करें लेकिन मेरा निवेदन यह है कि यहां, इस अद्वय दशा में न तो मुझे कोई सृष्टि दिखायी पड़ती है और न कोई प्रलय। न तो कभी कुछ बनाया गया है और न कभी कुछ मिटाया जाता है, जो है, है। जो नहीं है, नहीं है। न कोई बनाने वाला है, क्योंकि कोई चीज बनायी ही नहीं गयी है कभी-स्रष्टा कैसा, सृष्टि ही कभी नहीं हुई। और न कोई संहारकर्ता है। ये तुम्हारे ब्रह्मा, विष्णु, महेश संभालकर
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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