SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैं तो द्वंद्व के पार विराजमान हूं। यह स्फुरण भी गया। अष्टावक्र अपूर्व आनंद को उपलब्ध हुए होंगे जब उनका शिष्य कहने लगा, स्फुरण भी गया स्वच्छंदता भी गयी, स्वतंत्रता भी गयी। ये भी सब परतंत्रता की ही भाषाएं हैं। ' अथवा कहां प्रत्यक्ष ज्ञान है?' अष्टावक्र ने जोर दिया है, अपना ही ज्ञान होना चाहिए। शास्त्र का ज्ञान तो परोक्ष है। बुद्ध को हुआ था, पता नहीं, ठीक हुआ, गलत हुआ, धोखा दिया, कि कल्पना कर ली, कि खुद धोखा खा गये, कौन जाने! तुम्हें तो नहीं हुआ मैं कुछ कहता हूं मुझे हुआ हुआ या नहीं हुआ तुम कैसे तय करोगे? अंधेरे में टटोलना होगा। जब तक तुम्हें प्रत्यक्ष ज्ञान न हो जाए, तुम जब तक न जान लो, तब तक कोई जानने में अर्थ नहीं है। ऐसा अष्टावक्र ने कहा । ऐसा सभी सदगुरु कहते रहे हैं कि प्रत्यक्ष जानो, अपनी आंख से जानो, अपना ही अनुभव हो। जनक कहने लगे, कहां का प्रत्यक्ष ज्ञान और कहां उसका फल ! कुछ भी नहीं । अष्टावक्र खूब आनंदित हुए होंगे यही बात सच है। जहां परोक्ष गया, वहा प्रत्यक्ष भी गया। यह सब द्वंद्व ही हैं, एक ही साथ बंधे हैं। ये अलग- अलग नहीं होते हैं। ' अपने स्वरूप में अद्वय मुझको कहां लोक है, कहां मुमुक्षु है अथवा कहां योगी है, कहां ज्ञानवान है अथवा कहां बद्ध है और कहां मुक्त है? " क्व लोकः क्व मुमुक्षुर्वा क्व योगी ज्ञानवान क्व वा । क्व बद्धः क्व च वा मुक्तः स्वस्वरूपेऽहमद्वये ।। 'अपने स्वरूप में अद्वय मुझको ।' ख्याल रखना, निरंतर इस देश के सिद्धों ने, संतों ने अद्वय का उपयोग किया है, एक का नहीं । जब वे एक कहना चाहते हैं तो अद्वय शब्द का उपयोग करते हैं, बहुत सोचकरा अद्वय का अर्थ होता है, दो नहीं। सीधी-सीधी बात कह देते, कान को इतना उल्टा लंबा चक्कर लगाकर क्यों पकड़ना, कह देते एक, मुझ एक को। लेकिन नहीं, ऐसा भारत के सतपुरुष नहीं कहते मुझे एक को। क्योंकि एक के साथ दो का बोध आ जाता है। एक तो बनता ही तब है जब दो हों। पश्चिम में बहुत से गणितज्ञों ने बहुत तरह की चेष्टाएं की हैं सामान्य रूप से तो गणित में दस अंक होते हैं - एक से लेकर दस तक । और फिर इन दस ही के आधार पर सारा गणित का विस्तार होता है। फिर तो पुनरुक्ति है। फिर ग्यारह बारह, तेरह और फिर करोड़ों तक, अरबों-खरबों, शंख - महाशंख तक उसी की पुनरुक्ति है, लेकिन मूल आंकड़े तो दस हैं। यह दस का जन्म बड़ा अवैज्ञानिक है। यह दस पैदा हुए आदमी की दस अंगुलियों के कारण, क्योंकि आदमी ने गिनती सबसे पहले अंगुलियों पर शुरू की। तब कोई गणित तो न था - अब भी गांव का ग्रामीण अंगुलियों पर गिनता है। चूंकि दस अंगुलियां, सारी दुनिया में सभी आदमियों की दस अंगुलियां हैं, इसलिए सारी दुनिया में जितने गणित पैदा हुए सबका मूल अंक दस है। लेकिन यह कोई बड़ी गणित की तो बात न थी, यह तो संयोग की बात थी कि आदमी की
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy