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________________ गयी जिंदगी इसी डल झील पर मरते-मरते, एक दफा बंबई दिखा दो। उसे डल झील पर लग रहा है कि इससे ज्यादा और व्यर्थ काम क्या होगा ? उसे यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि डल झील में उसकी नौका पर जो मेहमान होते अधिकतर बंबई के ही होते हैं। बंबई से घबड़ाया हुआ आदमी कश्मीर भागता है। कश्मीर से घबड़ाया हुआ आदमी बंबई आना चाहता है। तुम्हें डल झील पर शांति मालूम पड़ती है। डल झील पर जो रह रहा है उसे सूनापन मालूम पड़ता है। फर्क समझ • लेना। तुम्हारी शांति की परिभाषा तुम्हारी बंबई की भीड़ से आती है। जब बंबई का आदमी जाकर झील पर बैठ जाता है तो कहता है, अहा हा! मगर यह है अभी भी बंबई में ही, क्योंकि यह जो अहा हा रहा है, यह बंबई की ही तुलना में आ रहा है, नहीं तो अहा जैसा कुछ भी नहीं है। वह बगल में इसके वहीं बैठा हुआ माझी मछली मार रहा है कि नौका खे रहा है, उसको कुछ अहाहा नहीं हो रहा है। उसके मन में कोई भाव नहीं उठता। वह किसी तरह चला रहा है, मक्खियां मार रहा है। वह कहता है, क्या करो कहीं और जाने का उपाय नहीं, बंबई अपने भाग्य में नहीं, यहीं गुजार देंगे! मक्खियां मार रहे हैं! उसे डल झील पर मक्खियां मारने जैसा लगता है। तुम जब भीड़ से भागते हो तो अकेलेपन का अनुभव होता है। अकेलापन भीड़ की ही प्रतीति है। जिस दिन तुम सच में ही अकेले हो जाओगे, उस दिन न तो भीड़ रहेगी, न अकेलापन रहेगा। कैसा अकेलापन, कैसी भीड़, दोनों गये। वह तो एक ही सिक्के के दो पहलू थे, पूरा सिक्का चला गया। जिस दिन तुम स्वयं पर आओगे, स्वयं को भी न पाओगे। न स्व, न पर। 'सदा स्वभावरहित मुझको - निस्वभावस्य मे सदा - कहां कर्तापन है, कहां भोक्तापन है, कहां निष्कियता, कहां स्फुरण है?" फिर एक सूत्र जो मैंने तुम्हें पीछे कहा कि कुछ बिंदु अष्टावक्र ने छोड़ दिये हैं, उनको पूरा करने के लिए रखा है। जनक उनको पूरा करे, तो ही समझो कि जनक समझा है। एक सूत्र था-तुरीय। अष्टावक्र ने कहीं भी यह नहीं कहा कि तुरीय के भी पार हो जाओगे। जनक ने कहा कि तुरीय के भी पार हो गया। अगर सिर्फ दोहराता होता तो उतना ही कहता जितना अष्टावक्र ने कहा था। एक कदम अष्टावक्र ने छोड़ दिया था। अगर अनुभव होगा तो वह कदम भी उसको दिखायी पड़ जाएगा। यह दूसरा सूत्र - स्फुरण । अष्टावक्र का सूत्र था. स्वस्फुरण, स्वच्छंद - अपने स्वयं की स्फुरणा से जो जीए। वही सत्य को पा गया है। जो दूसरे के उधार से नहीं जीता, जो दूसरे के आदेश से नहीं जीता, जो दूसरे का अंधानुकरण नहीं करता, जो स्वयं से ही स्फूर्ति लेता है, स्पांटेनिटी से जीता है, वही । जनक कहते हैं, 'कहां स्फुरण?' क्व कर्ता क्व च वा भोक्ता निष्कियं स्फुरण क्व वा । कहां का स्फुरण, कैसी बातें लगाए हैं! यहां कोई स्फुरण नहीं हो रहा है। जब सारी वासना चली गयी, सारी तृष्णा चली गयी, आकांक्षाए चली गयीं, स्फुरण कैसा? जब सारी किया चली गयी, स्फुरण कैसा? जब परतंत्रता चली गयी तो स्वच्छंदता कैसी? दोनों गये, दोनों साथ -साथ गये गतद्वंद्वस्य मे सदा।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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