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तेरे जमाल की तस्वीर खींच दूं लेकिन
जबां में आंख नहीं आंख मे जबाँ नहीं
होता है राजे-इश्क,- ओ - मुहब्बत इन्हीं से फाश आंखें जबां नहीं हैं मगर बेजबा नहीं
समझो -
तेरे जमाल की तस्वीर खींच दूं लेकिन
जबां में आंख नहीं आंख में जबां नहीं
तेरी प्रतिमा तो बना दूं र तेरी आकृति तो निर्मित कर दूं र तेरी परिभाषा तो कर दूं र लेकिन विराट है तेरा यह रूप। आंख से देख लेता हूं, जबान से कहना चाहता हूं, बस मुश्किल हो जाती है-आंख में जबान नहीं। आंख से देख लेता हूं तुझे लेकिन आंख के पास कहने की जबान नहीं है। जबान से कहना चाहता हूं - जबां में आंख नही - और जबान ने देखा नहीं है। आंख ने देखा है और जबान कहना चाहती है, मुश्किल हो जाती है। कैसे कहूं?
इसलिए तुम मुझसे पूछते हो परिभाषा ? मैं कहता हूं, मेरी आंख में देख लेना। आंख ने देखा है उसे, जबान ने उसे देखा नहीं। जबान कह सकती है, लेकिन जो भी कहेगी वह अनुमान होगा। होता है राजे - इश्क- ओ - मुहब्बत इन्हीं से फाश
आंख के द्वारा ही प्रेम के रहस्य का पर्दा उठता है। अगर तुम्हें प्रेमी को पहचानना है, जरा उसकी आंख में झांकना । उसकी आंख में तुम्हें एक खुमार मिलेगा| उसकी आंख में एक मस्ती मिलेगी। उस मस्ती से ही तुम्हें उसके प्रेम का दर्शन होगा।
होता है राजे - इश्क - ओ - मुहब्बत इन्हीं से फाश आंखें जबां नहीं हैं मगर बेजबां नहीं
बड़ी मधुर बात है। आंखों के पास जबान तो नहीं है, यह बात सच है, लेकिन यह कहना भी ठीक नहीं कि आंखें बेजबां हैं। अगर कोई देखनेवाला हो तो आंखों से संदेश मिल जाता है।
परिभाषा शाब्दिक होगी। कितनी तो परिभाषाएं की गयी हैं परमात्मा की, तुम उन्हें कंठस्थ कर ले सकते हो, पर कुछ हल न होगा। जाना पड़े, अनुभव में जाना पड़े। और जिस दिन तुम अनुभव में जाना शुरू करोगे, उस दिन तुम पाओगे कि उसके अतिरिक्त और कोई मिलता ही नहीं।
गुलशन में फिरूं कि सैर सहरा देखूं
या मादनो – कोहो – दस्तो – दरिया देखूं
हर जी तेरी कुदरत के हैं लाखों जल्ये
हेरा हूं कि दो आंखों से क्या-क्या देखूं
जिस दिन थोड़ा अनुभव होगा उस दिन तुम पाओगे, हर तरफ उसी के हजारों - हजार उत्सव
हो हैं
हर जां तेरी कुदरत के हैं लाखों जल्वे