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________________ देखो, तर्क सिखाया जा सकता है, प्रेम सिखाया नहीं जा सकता। तर्क के स्कूल हैं, कालेज हैं, विश्वविद्यालय हैं, तुम जाकर तर्क पढ़ सकते हो। तर्क न आता हो तो अभ्यास कर सकते हो। लेकिन प्रेम का कोई विदयालय नहीं है, कोई विदयापीठ नहीं है। प्रेम को कोई सिखा नहीं सकता। ___एक आदमी ने रामानुज से जाकर कहा कि मुझे परमात्मा का मार्ग बता दें। बस मेरे जीवन में एक ही चीज पाने की है, वह परमात्मा पाना है, सब कुछ दाव पर लगाने को तैयार हूं। रामानुज ने कहा, मेरे भाई, एक बात पूछता हूं तुमने कभी किसी को प्रेम किया उस आदमी ने कहा, इस झंझट में मैं कभी पड़ा ही नहीं, मैं धार्मिक आदमी हूं, मैं बचपन से ही धार्मिक हूं। मुझे पहले ही से परमात्मा को पाना है। प्रेम इत्यादि के चक्कर में मैं पड़ा नहीं। रामानुज बहुत उदास हो गये और रामानुज ने कहा कि फिर भी तुम खोजो, शायद किसी मित्र से किया हो। किसी से तो किया होगा! मां से किया हो, पिता से किया हो, भाई-बहन से किया हो, कभी तुम्हारे जीवन में प्रेम की पुलक उठी कि नहीं? वह आदमी बड़ा नाराज हो गया। उसने कहा, मैं परमात्मा की पूछता हूं, तुम प्रेम की बातें उठाते हो। मैं परमात्मा का खोजी हूं, प्रेम से क्या लेना-देना! प्रेम का चक्कर ही तो परमात्मा तक नहीं जाने देता। तो रामानुज की आंखों में, कहते हैं, आंसू आ गये। और उन्होंने कहा, फिर मैं तुम्हारा कुछ भी सहयोग न कर पाऊंगा। फिर मैं असमर्थ हूं। वह आदमी कहने लगा, लेकिन तुम्हारी असमर्थता क्या है? इतने तुम्हारे शिष्य हैं, इतने लोग तुम्हारे दवारा प्रभु की तरफ जा रहे हैं, मुझे ही क्यों तुम छोड़ते हो? मुझमें ऐसी कौन-सी अपात्रता है। मैं ब्रह्मचर्य का पालन किया हूं सात्विक भोजन करता हूं, किसी तरह की सासारिक झंझट में नहीं पड़ा हूं तुम मुझे छोड़ क्यों रहे हो मेरी अपात्रता कहां है, बताओ। रामानुज ने कहा, तुमने सब किया होगा, उससे पात्रता नहीं बनती, वह तुम्हारा किया हुआ है। सिर्फ एक चीज से पात्रता बनती है, प्रेम। और तुम कहते हो तुमने प्रेम जाना ही नहीं, अब जिसने प्रेम नहीं जाना उसको मैं मार्ग कैसे बताऊं? क्योंकि प्रेम ही मार्ग है। तुमने थोड़ा-सा जाना होता, तो रास्ता खुलता था। चाहे किसी के, स्त्री के प्रेम में पड़ गये होते, कोई हर्जा नहीं, है तो भनक उसी बड़े प्रेम की। छुद्र में उठी है, लेकिन है तो विराट की ही। जब तुम किसी स्त्री को सच में ही प्रेम करते हो, तो स्त्री स्त्री नहीं रह जाती। उसके भीतर कुछ दिव्यता का आविर्भाव हो जाता है। जब तुम किसी पुरुष को प्रेम करते हो तो वह पुरुष पुरुषोत्तम हो जाता है। कम से कम तुम्हारे प्रेम के क्षणों में तो पुरुषोत्तम हो जाता है। उन क्षणों में तो तुम उसे साधारण व्यक्ति नहीं मानते, वह असाधारण हो जाता है। देदीप्यमान। उसके भीतर एक प्रभा प्रगट हो जाती है। माना कि यह परमात्मा को पाने का बडे दूर का रास्ता हुआ, लेकिन बस यही रास्ता है। यह प्रेम अभी प्रार्थना नहीं है, लेकिन संभावना है। हीरा हो तो निखारा जा सकता है, सकता है। हीरा हो ही नहीं तो क्या तराशिएगा? क्या निखारिएगा? सोना हो, कितना ही मिट्टी में दबा हो, कितना ही कूड़े -करकट से मिला हो, शुद्ध किया जा सकता है। जब तुम्हारा अशुद्ध प्रेम शुद्ध हो जाता है तो प्रार्थना बन जाता है। प्रार्थना में ही परिभाषा है।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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