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________________ कि तुम इसको छोड़कर चले जाओ। अष्टावक्र भी नहीं कहते। अगर मैं होता उस फकीर की जगह, या अष्टावक्र होते, तो इब्राहिम से कहते कि बस, अब कहा जाता है? जब सराय ही है तो जाना भी क्या! अरे, मजे से रह, सिर्फ सराय जान, बात खत्म हो गयी। जाना कहां है! जो तेरा नहीं है, उसे छोड़ कर कैसे जा सकता है! छोड़कर जाने में भी तो मेरे का भाव है। बात खतम हो गयी। इतनी-सी बात समझ में आ गयी कि अपना घर नहीं है, सराय है, संन्यास हो गया। अपनी पत्नी नहीं है, अपना बेटा नहीं है। किसी से कहने की भी जरूरत नहीं है, कुछ बैड-बाजे बजाने की जरूरत भी नहीं है, कोई शोभायात्रा निकालने की भी जरूरत नहीं है कि दीक्षा ले रहे हैं। हो गयी बात, समझ में आ गयी। इसीलिए तो मैं संन्यास इतनी सरलता से दे देता हूं। यह भी नहीं पूछता कि संभाल सकोगे? संभालना क्या है? यहां संभालने योग्य कुछ है ही नहीं। यह भी नहीं पूछता कि अनुशासन रख सकोगे? क्या खाक अनुशासन! यह सपने की दुनिया में कैसा अनुशासन? यह भी नहीं कहता कि पत्नी-बच्चों का क्या करोगे? इतना ही कि तुम्हें बोध हो जाए कि यहां मेरा तेरा कुछ भी नहीं है। जिसका है, उसका है। उसके हम भी, उसका सब। इतनी-सी बात हो जाए, संन्यास हो गया। और अगर तुम मेरा संन्यास भी लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाते तो तुम और किसी तरह का संन्यास तो कैसे ले पाओगे। वह तो बड़े उपद्रव के हैं। यह तो बड़ी सुगम और सहज बात है। पर मैं तुमसे कहता हूं कि लोग पुराने ढंग का संन्यास लेने की हिम्मत आसानी से जुटा लेते हैं क्योंकि उसमें अहंकार को प्रतिष्ठा है, सुविधा है। संन्यासी हो गये, जैन मुनि हो गये, रथ निकला, जुलूस निकला, दीक्षा हुई लोग चरण छूने लगे, उसमें अहंकार को मजा है, कर्तव्य का भाव है। यहां तो कुछ भी नहीं है। यहां तो लोग समझेंगे पागल हो गये। लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, तुम्हारा दिमाग भी खराब हो गया। तुम भी बातों में पड़ गये। अरे, तुम्हारा नहीं सोचते थे कि तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और ऐसी बातों में पड़ जाए। अगर तुम पुराने ढंग का संन्यास लोगे तो बुद्ध हो तो बुद्धिमान समझे जाओगे। अगर मेरा संन्यास लिया, बुद्धिमान हुए तो बुद्ध समझे जाओगे इसलिए अड़चन होती है। बात तो मेरी बिलकुल सरल है। साहस क्या चाहिए? कोई बड़ा काम करने को कह भी तो नहीं रहा। कोई हिमालय थोड़े ही चढ़ना है। कोई चांद-तारों पर थोड़े ही जाना है। जरा-सा बोध, जरा-सी बोध की चाबी, जरा-सी घूमती है कि ताला खुल जाता है। यह ताले पर कोई हथौड़े थोड़े ही पटकने हैं पुराने संन्यासी हथौड़े पटक रहे हैं। मैं कहता हूं जरा-सी चाबी है इसकी, हथौड़े पटकने की कोई जरूरत नहीं है। और जल्दी करो, क्योंकि कल का क्या भरोसा! इस क्षण के बाद का क्षण आएगा, नहीं आएगा कौन व कह सकता। बीत चली संध्या की बेला। धुंधली प्रतिपल पड़ने वाली एक रेख में सिमटी लाली
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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