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________________ भी उसके लिए कोई तुलना का कारण नहीं बनते। यह तो ऐसा होगा जैसे कोई चुल्ल भर पानी से सागरों की तुलना देने लगे। नहीं, कोई तुलना नहीं बनती, अतुलनीय है। इस सूत्र को समझो 'जो सर्वत्र उदासीन है।' उदासीन बड़ा अदभुत शब्द है। लेकिन बुरी तरह विकृत हो गया। शब्दों के साथ भी कभी-कभी समय बड़ा दुर्व्यवहार करता है। अच्छे -अच्छे शब्द भी कभी धूल-धूसरित हो जाते हैं। और कभी पददलित शब्द भी सिंहासनों पर बैठ जाते हैं। संयोग की बातें हैं। दुर्घटनाएं घटती हैं। उदासीन बड़ा अदभुत शब्द है, बड़ा अर्थपूर्ण। लेकिन दुर्गति हो गयी इसकी। कुसंगति में पड़ गया। अब तो उदासीन का अर्थ होता है, जो उदास है। निराश है, हताश है, विरक्त है, ऐसा अर्थ होता है। लेकिन यह उदासीन का केवल नकारात्मक पहलू है, यह असली बात नहीं है। उदासीन का अर्थ होता है, उद आसीन। जो अपने भीतर बैठ गया। जो भीतर विराज गया। वह उसका विधायक अर्थ है। जो उपवास का अर्थ है, वही उदासीन का अर्थ है। उपवास का अर्थ है, जो भीतर निवास करने लगा। उप वास। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उदासीन। क्योंकि उपवास का अर्थ है, जो अपने निकट आया, उदासीन का अर्थ है, जो अपने में प्रतिष्ठित हो गया। उपवास उदासीन की तरफ जाने की सीढ़ी है। अपने पास बैठ रहा तो उपवास और अपने में ही बैठ रहा, तो उदासीन। आसन जिसने लगा लिया अपने भीतर। जो अपनी चेतना के केंद्र में विराजमान हो गया। स्वस्थ का जो अर्थ है, स्व: स्थित जो हो गया, वही अर्थ उदासीन का है। लेकिन जो अपने में स्थित हो जाता है, वह बाहर की हजार चीजों के प्रति उदास हो जाता है। इससे भूल हो गयी। समझना इस बात को, क्योंकि यह इसी संबंध में नहीं हुई है यह भूल बहुत-बहुत आयामों में हुई है। जब कोई व्यक्ति अपने भीतर विराजमान हो जाता है, तो इस जगत की बहुत-सी बातों में जिनमें कल उसे रस था, अब रस नहीं रह जाता। लोगों को उसके भीतर का सिंहासन तो दिखायी नहीं पड़ता, उनको तो इतना ही दिखायी पड़ता है, अरे, यह आदमी विरस हो गया! अब इसको कोई रस नहीं। कल देखो कैसा नाच-रंग में रस लेता था, अब जाता ही नहीं! कल कैसा उचका-उचका फिरता था, कूदा-कूदा फिरता था, अब कहीं जाने की इसकी कोई उत्सुकता नहीं रही। कल कैसा धन कमाने में आतुर था, अब जरा भी आतुर नहीं। कल पद के लिए कितना श्रम करता था, कैसा गिड़गिड़ाता फिरता था द्वार-द्वार कि चुनाव आ गया अब, मत दो, वोट दो, अब इसका कोई रस नहीं रहा। अब इसको तुम जाकर भी कहो कि चुनाव में खड़े हो जाओ, तो यह कहता है, क्षमा करो, हमने कोई पाप थोड़े ही किये पिछले जन्म में! हमें किन कर्मों की सजा देने आए हो! हमें छोड़ो, बख्यये! और पागल बहुत हैं, किसी को पकड लो। तो लोग कहेंगे, उदासीन हो गया, बेचारा! लोग दयाभाव से कहते हैं कि बेचारा उदासीन हो गया। हार गया जिंदगी से! लेकिन बात कुछ और घटी है। बाहर से इसने जो छोड़ा है, यह गौण है। भीतर जो इसे मिला है, वही प्रमुख है। और भीतर इसे इतना रस मिल रहा है, वह तुम्हें दिखायी नहीं पड़ रहा है। यह रसलीन है। रसलीन होने के कारण बाहर की व्यर्थ बातें अब रसपूर्ण नहीं मालूम पड़ती। इसे बड़ा रस उपलब्ध
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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