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________________ है। विस्मरण से भरा। यद्यपि विस्मरण में एक तरह का सुख है। कम-से -कम सुख का आभास तो है ही। दुख भूल जाता है इतना तो निश्चित है, न मिटता हो! थके-हारे आदमी को उतना विस्मरण भी काफी है। हृदयग्रंथि के ऊपर, अनाहत के ऊपर यात्रा करो, तो अंत में मिलता है सहस्रार। जैसे निम्नतम है मूलाधार, वैसे श्रेष्ठतम है सहस्रार। सहस्रार का अर्थ होता है, सहस्रदलों वाला कमल। वह मनुष्य के चैतन्य का आखिरी प्रस्फुटन है, जहां फूल खिला मनुष्य की आत्मा का। वहा पहुंचकर मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता, परमात्मा हो जाता है। मूलधार पर गिरकर मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता पशु हो जाता है, सहस्रार पर उठकर मनुष्य फिर मनुष्य नहीं रह जाता, परमात्मा हो जाता है। मनुष्य तो एक उलझन है, एक गांठ है। मनुष्य तो मनुष्य रहता है, क्योंकि हृदय की ग्रंथि बंधी है। हृदय की ग्रंथि में ही मनुष्यता है। मनुष्यता में एक अनिवार्य विषाद और संताप है। मनुष्य होकर कोई सुखी हो ही नहीं सकता। या तो पशु सुखी हैं, क्योंकि उन्हें दुख का पता नहीं हो सकता। बोध ही नहीं है। या परमात्मा सुखी है, क्योंकि इतना बोध है कि उस बोध में दुख संभव नहीं है। इतना प्रकाश है कि उस प्रकाश में अंधेरा टिक नहीं सकता। पशु को दिखायी नहीं पड़ता अंधेरा, क्योंकि पशुता अंधी है। और जब दिखायी नहीं पड़ता तो पशु सोचता है, नहीं होगा। परमात्मा की दशा में, परमात्म-दशा में-बुद्धत्व कहो, जिनत्व कहो, अरिहंत की अवस्था कहो, जो भी नाम तुम्हें पसंद हों लेकिन वे सब एक ही बात कहते हैं कि उस दशा में फिर दुख नहीं है। क्योंकि इतना प्रबल चैतन्य का प्रवाह आता, ऐसा ज्वार आता प्रकाश का, हजार-हजार सूरज एक साथ ऊग गये, कहां अंधेरा टिकेगा! अंधेरे को टिकने की जगह नहीं होती। और जहां अंधेरा नहीं टिक सकता, वहाँ दुख नहीं टिक सकता-दुख एक तरह का अंधेरा है। वहा परम आनंद है। दोनों स्थितियों में मनुष्य समाप्त हो जाता है। तो मनुष्य कहां है? मनुष्य हृदय की ग्रंथि में है। मनुष्य के नीचे की जो दुनिया है, वह भी हृदय से ही नीचे है और मनुष्य से ऊपर की जो दुनिया है वह भी हृदय के ऊपर है। और तुम जहां हो, वह जगह हृदय है और वहीं गांठ उलझी है। हृदय चौराहा है, जहां से या तो नीचे जाओ या ऊपर जाओ। तो हृदय से ही आदमी ऊपर उठता है और हृदय से ही नीचे गिरता है। इस बात को समझ लेना। जब हृदय ऐसे प्रेम से भरता है जो वासनापूर्ण है, तो नीचे की यात्रा शुरू हो जाती है। जब हृदय ऐसे प्रेम से भरता है जो प्रार्थनापूर्ण है, जो ऊपर की यात्रा शुरू हो जाती है। लेकिन हृदय से ही नीचे और हृदय से ही ऊपर। हृदय ही साथी है और हृदय ही शत्रु है। होगा भी ऐसा ही। क्योंकि हृदय सीढ़ी है। तुम सीढ़ी से नीचे जाओ तो भी वही सीढ़ी काम आती है, ऊपर जाओ तो भी वही सीढ़ी काम आती है। ऊपर के लिए कोई अलग सीढी थोड़े ही होती है, नीचे के लिए कोई अलग सीढ़ी थोड़े ही होती है! सीढ़ी एक ही होती है, सिर्फ तुम्हारी दिशा बदल जाती है। प्रार्थना का अर्थ है, आंखें ऊपर की तरफ लगी हैं। इसीलिए तो आदमी आकाश की तरफ हाथ
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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