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________________ काम की मुक्ति नहीं होती। हृदय है गांठ, जहां संसार और निर्वाण बंधे हैं। जब तक वहा गांठ न टूट जाए, तब तक संसार और निर्वाण पृथक नहीं होते। हृदय सबसे महत्वपूर्ण गांठ है। और ग्रंथि शब्द का अर्थ गांठ है। मनोवैज्ञानिक जिसे काप्लेक्स कहते हैं। जहां चीजें उलझ गयी हैं। जहां सुलझाना पड़ेगा। मनुष्य के शरीर में दोनों का मिलन हो रहा है, काम और राम का। दोनों का मिलन हो रहा है, ब्रह्म और माया का। मनुष्य के शरीर में छद्र विराट से मिल रहा है। निम्न श्रेष्ठ से मिल रहा है। अंधेरा और प्रकाश एक-दूसरे से हाथ मिला रहे हैं। प्रकृति और परमात्मा साथ-साथ खड़े हैं। मनुष्य एक अपूर्व संगम है। और इस संगम की जो सबसे आधारभूत कड़ी है, वह हृदय है। हृदय की ग्रंथि जब तक न टूट जाए, सुभिन्नहृदयग्रंथि:, जब तक भलीभांति हृदय की ग्रंथि छिन्न-भिन्न न हो जाए, तब तक कोई मुक्ति नहीं है। तब तक कोई बुद्धत्व नहीं है। हृदयग्रंथि का यौगिक नाम है, अनाहत चक्र। तीन चक्र नीचे हैं अनाहत के और तीन चक्र ऊपर हैं। अनाहत चक्र पर ठीक तराजू के दो पलड़े अलग-अलग बंट जाते हैं। अनाहत चक्र पर तराजू का काटा है। नीचे जाओ तो अंततः अंत में मिलता है मूलाधार। कामवासना का गहन अंधकार। मूर्छा, गहरी बेहोशी। जहां चैतन्य सब तरह से डूब जाता है। जहां होश जरा भी नहीं रह जाता। इसलिए कामवासना का इतना प्रभाव है। जब भी आदमी अपने को भुलाना चाहता है, तो कामवासना उसके भीतर निर्मित होनेवाली शराब है। उसे पीकर भूल जाता है। थोड़ी देर को ही भूल पाता है स्वभावत:, क्षण भर को ही भूल पाता है, क्योंकि उतने नीचे तल पर सदा बना रहना संभव नहीं है। उस नीचे तल को छु तो सकता है, जैसे कोई आदमी पानी में इबकी लगाए और चला जाए नीचे तलहटी को ले, लेकिन कितनी देर रुकेगा? क्षणभर बाद भाग-दौड़ मच जाती है, लौटता है वापिस, सतह पर आना पड़ता है। तो कामवासना में डुबकी तो लगती है क्षण भर को, भूल भी जाता है अपने को, भूल जाता है संसार, विस्मरण हो जाता है चिंताओं का; न कोई उलझन रह जाती, न कोई समस्या रह जाती, न कोई विषाद-संताप रह जाता, क्षण भर को सब कुछ भूल जाता है। लेकिन बस क्षण भर को। लौटकर फिर सब वैसा का वैसा खड़ा है। शायद पहले से भी ज्यादा विकृत होकर खड़ा है। क्योंकि इतना समय और गंवाया और इतनी ऊर्जा भी खोयी। स्थिति बदलेगी नहीं। विस्मरण से कुछ रूपांतरण नहीं होता है। तो नीचे है मूलाधार। मूलाधार में गिरकर आदमी पशुवत हो जाता है। इसलिए पुराने शास्त्र कहते हैं, अगर कामवासना ही तुम्हारे जीवन का लक्ष्य है तो तुममें और पशु में फिर कोई भेद नहीं। पशु शब्द बड़ा बहुमूल्य है। इसका अर्थ होता है, जो कामवासना की जंजीर में बंधा, पाश में बंधा, वह पशु। जिसके गले में कामवासना की जंजीर बंधी है, जो नीचे की तरफ खींचा जा रहा है पाश से, वह पशु। पाश से जो मुक्त हो जाए, वही पशुता से मुक्त हुआ। हृदयग्रंथि के नीचे पश् का संसार है। अंधेरा। यदयपि अंधेरे की अपनी एक तरह की विश्रांति
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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