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________________ घटायें घिर आई घनघोर वेग मारुत का है प्रतिकूल हिले जाते हैं पर्वत-मूल गरजता सागर बारंबार कौन पहुंचा देगा उस पार? कुछ मांगा नहीं जा रहा है। कुछ कहा जा रहा है जरूर। अपनी असहाय अवस्था प्रगट की जा रही है। मांगा कुछ भी नहीं जा रहा। मांग कुछ भी नहीं है। अपना बेसहारापन प्रगट किया जा रहा है, कोई सहारा नहीं मांगा जा रहा है। तरंगें उठती पर्वताकार भयंकर करती हाहाकार अरे उनके फेनिल उच्छवास तरी का करते हैं उपहास हाथ से गई छूट पतवार कौन पहुंचा देगा उस पार? सुनते हो? कौन पहुंचा देगा उस पार? न ही कोई मांग है, न ही किसी हाथ की तलाश है, न ही कोई भिखमंगे की प्रार्थना है, सिर्फ निवेदन है। सिर्फ अपनी स्थिति का निवेदन है। ग्रास करने नौका स्वच्छंद घूमते फिरते जलचरवृंद देखकर काला सिंधु अनंत हो गया है साहस का अंत तरंगें हैं उत्ताल अपार कौन पहुंचा देगा उस पार? और जब ऐसी भावदशा में तुम झुकोगे तो तुम अचानक पाओगे पहुंच गये उस पारा उस झुकने में ही मिल जाता किनारा। क्योंकि उस झुकने में ही खो जाता अहंकार। यह जो हाहाकार है, ये जो उत्ताल तरंगें हैं, यह जो सब तरह गहन अंधकार है, यह तुम्हारा अहंकार है और कुछ भी नहीं। अब फर्क समझना। अहंकारी आदमी झुकता है परमात्मा के सामने ताकि अहंकार के लिए कुछ और सहारे मिल जायें कि हे प्रभु, कुछ दो। इधर अहंकार टूटा जा रहा है, स्तंभ हिले जाते हैं, जड़ें उखड़ी जाती हैं, कुछ दो। मुझे मजबूत करो| तो प्रार्थना चूक गई। प्रार्थना प्रार्थना न हुई। नहीं, तुमने कहा सिर्फ, ये जड़ें उखड़ी जाती हैं। यह गहन अंधकार है। ये उत्ताल तरंगें हैं। यह सब उखड़ा जा रहा है।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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