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________________ सब तरह से सहयोग व सहारा देना चाहोगे। तुम चाहोगे कि वह मुक्त हो स्वतंत्र हो, स्वच्छंद हो। तुम चाहोगे कि वह जैसा होने को पैदा हुआ है वैसा हो, मेरी आकांक्षाएं उस पर धुप न जाएं। मैं उसका कारागृह न बनूं मैं उसके पंख बनूं। मैं उसे जमीन पर अटका न लूं, मैं उसे आकाश में जाने का सहारा दूं। वह मुझसे दूर भी जाए-अगर यही उसकी नियति है तो दूर जाए। वह मुझसे विपरीत भी जाए अगर यही उसकी नियति है तो विपरीत जाए। लेकिन वह जो होने को पैदा हुआ है वही होकर रहे। उसे मैं मार्ग से स्मृत न करूं। ऐसी करुणा। नि:स्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेयु च उसकी विषयों में अब कोई कामना नहीं। निश्चित स्वशरीरेउपि निराश: शोभते बुध: यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है निश्चित स्वशरीरेउपि.....| अपने शरीर के प्रति बुद्धपुरुष निश्चित है। निश्चित है इसलिए कि शरीर तो मरेगा। शरीर तो मरा ही हुआ है। शरीर तो मरणधर्मा है। जाएगा-आज नहीं कल, कल नहीं परसों, देर- अबेर। जाएगा। जिस दिन से पैदा हुआ है उसी दिन से जाना शुरू हो गया है, मर ही रहा है। तो मर कर रहेगा। इसलिए चिंता क्या? इस जीवन में एक ही चीज तो बिलकुल निश्चित है, वह मौत है। और उसी की तुम चिंता करते हो! जो बिलकुल निश्चित है, उसकी क्या चिंता करनी? वह तो होकर ही रहने वाली है। जो बात होकर ही रहनेवाली है, जिससे अन्यथा कभी हुआ ही नहीं, उसकी तो चिंता छोड़ दो। उसकी चिंता का कोई प्रयोजन ही नहीं है। आज तक कोई मौत से बच सका? कितने उपाय नहीं किये गये हैं! मौत से कभी कोई बच नहीं सका। तो मौत तो नियति है, होकर ही रहेगी, शरीर में छिपी है। ऐसा थोड़े ही है कि तुम सत्तर साल के बाद एक दिन अचानक मर जाते हो। सत्तर साल तक मौत तुम्हारे शरीर के भीतर फैलती है, बड़ी होती है, विकसित होती है, एक दिन तुम्हें पूरा घेर लेती है ग्रस लेती है। मौत शरीर का हिस्सा है। मौत शरीर का धर्म है, होकर रहेगा। जब जन्म हो गया, तो अब मौत से नहीं बचा जा सकता। जब जन्म हो गया, तो मौत हो गयी। जन्म एक हिस्सा है, मौत दूसरा हिस्सा, एक ही ऊर्जा के। तो ज्ञानी जानता है, मौत तो निश्चित है, फिर चिंता क्या? निश्चित जानकर मृत्यु को ज्ञानी निश्चित हो जाता है। और तुम उल्टी हालत कर लेते हो। तुम निश्चित जानकर और बड़ी चिंता से भर जाते हो। तुम मौत की बात ही नहीं उठाना चाहते। तुम तो यह मानकर रहते हो कि मौत दूसरों की होती है, मेरी थोड़े ही कभी होती है। दूसरे मरते हैं सदा, अर्थी किसी और की निकलती है, अपनी तो निकलती नहीं। बात सच भी है। तुम्हारी तो निकलेगी तो तुम थोड़े ही देखोगे दूसरे देखेंगे! तुम जब भी किसी की अर्थी देखते हो, वह किसी और की है। तो एक भाव बना रहता है कि यह मरना हमेशा दूसरे लोग करते हैं, मैं थोड़े ही करता! तुमने कभी अपने को मरते तो देखा नहीं। मरे तुम भी बहुत बार हो, लेकिन तुम इतने बेहोश हो कि तुम जीवन में ही होश नहीं संभाल पाते, तो मरते वक्त
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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