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________________ रहा है, अब पाठ चल रहा है, शास्त्र पढ़ा जा रहा है, उलझे रहो। और फिर वहां यह भी भरोसा रहता है कि हम अकेले ही थोड़े फंसे हैं इस मुसीबत में, और न मालूम कितने नासमझ फंसे हैं। देख-देख कर चित्त प्रसन्न रहता है कि हम अकेले ही थोड़े भूखे मर रहे हैं, ये सब मर रहे हैं। और एक-दूसरे से काम्पेटीशन और प्रतिस्पर्द्धा कि देखें कौन किसको हराता है, तो रस लगा रहता है। घर अकेले बैठकर फिर याद आती है कि हम अकेले कहां फंस गये, किस चक्कर में पड़ गये, पता नहीं ये कब खतम होंगे पर्यूषण। और जब खतम होंगे तब की योजनाएं बनाते हैं लोग। क्या-क्या खाना, क्या-क्या नहीं खाना । क्या-क्या बाजार से खरीद लाएंगे। तुम जाकर पूछ सकते हो बाजार में, जैसे ही पर्यूषण खतम होते हैं, बिक्री एकदम बढ़ जाती है। मिठाई वालों की, सब्जी वालों की, फल वालों की एकदम बिक्री बढ जाती है। लोग एकदम टूट पड़ते हैं। दस दिन इकट्ठा करते रहे विचार योजनाएं बनाते रहे। उपवास कर लिया दिन में तो रात सपने में भी भोजन ही करोगे। भोजन ही भोजन चलने लगेगा। तो तुम समझ सकते हो, तुम उपवास करो तो भोजन हो जाता है। बौद्धिक रूप से भी ख्याल आ सकता है। तो इससे विपरीत दशा भी हो सकती है कि कोई भोजन करते हुए भी उपवासा हो। उस विपरीत दशा का नाम ही वीतरागता है। अपूर्व दशा है वह वहां तुम जल में चलो, पानी तो पैर को छूता है लेकिन तुम्हारे पैर पानी को नहीं छूते। ज्ञान मृत भी जीवित भी । या, न मृत न जीवित । ज्ञानी को कोटि में रखना मुश्किल है। इतना ही सूचन ले लेना, ज्ञानी को किसी भी कोटि में रखो, गड़बड़ हो जाती है। क्योंकि सब कोटियां संसार की हैं। ज्ञानी कोटि के बाहर है। वह न मरा हुआ है, न जीवित ही है। 'पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेहरहित और विषयों के प्रति कामनारहित और अपने शरीर के प्रति निश्चित बुद्धपुरुष ही शोभते हैं।' निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेगु चा निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराश: शोभते बुधः । महत्वपूर्ण सूत्र है। और जिस तरह से अब तक इस सूत्र की व्याख्या की गयी है, वह ठीक नहीं है। जैसा हिंदी में अनुवाद है, वह भी बहुत ठीक नहीं है। इसलिए गौर से समझना | निस्नेह पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेमु चा पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेह रहित । इससे ऐसा अर्थ समझ में आता है-टीकाकार ऐसा ही अर्थ करते रहे है-कि ज्ञानी पुरुष में स्नेह नहीं होता। यह बात गलत है। ज्ञानी पुरुष में ही स्नेह होता है। अज्ञानी में क्या खाक स्नेह होगा ! तो फिर इस सूत्र का क्या अर्थ होगा? इस सूत्र का अर्थ होता है कि ज्ञानी में स्नेह होता है, लेकिन अपने हैं इसलिए नहीं होता; पराये हैं इसलिए नहीं होता । मेरा बेटा है, इसलिए नहीं, मेरी पत्नी है, इसलिए नहीं । फर्क समझना। तुम किसी को स्नेह करते हो तो कहते हो, तुम्हारे प्रेम में 'इसलिए है। मेरी पत्नी है इसलिए प्रेम करता हूं। मेरी मा है, इसलिए प्रेम करता हूं। तुम्हारे प्रेम में 'इसलिए' है। मेरा
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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