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________________ किसकी है, इससे भेद नहीं पड़ता। धन मांगते, पद मांगते, ध्यान मांगते, कुछ फर्क नहीं पड़ता। मांगते हो, भिखमंगे हो। मांगो मत। मांग ही छोड़ दो। और मांग छोड़ते ही एक अपूर्व घटना घटती है; क्योंकि जो तुम्हारी ऊर्जा मांग में नियोजित थी, हजारों मांगों में उलझी थी वह मुक्त हो जाती है। वही ऊर्जा मुक्त होकर नाचती है। वही नृत्य महोत्सव है। वही नृत्य है परमानंद, सच्चिदानंद। कुछ ऊर्जा धन पाने में लगी है, कुछ पद पाने में लगी है, कुछ मंदिर में जाती है, कुछ दूकान पर जाती है। कुछ बचता है थोड़ा-बहुत तो ध्यान में लगाते हो, गीता-कुरान पढ़ते हो, पूजा-प्रार्थना करते हो; ऐसी जगह-जगह उलझी है तुम्हारी ऊर्जा। अष्टावक्र कहते हैं, महाशय हो जाओ, सब जगह से छोड़ दो। आकांक्षा का स्वभाव समझ लो। आकांक्षा का स्वभाव ही तरंगें उठा रहा है। कभी तुमने खयाल किया? एक घड़ी को बैठ जाओ, कुछ भी न चाहते हो, उस क्षण कोई तरंग उठ सकती है? कुछ भी न चाहते हो, कोई मांग न बचे तो लहर कैसे उठेगी? तुम कहते हो हम ध्यान करने बैठते हैं लेकिन विचार चलते रहते हैं। उसका कारण यही है कि तुम ध्यान करने तो बैठे हो लेकिन तुम आकांक्षा का स्वरूप नहीं समझे हो। हो सकता है तुम ध्यान करने इसीलिए बैठे होओ कि कछ आकांक्षायें पूरी करनी हैं, शायद ध्यान से पूरी हो जायें। - मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं, अगर ध्यान करेंगे तो सुख-संपत्ति मिलेगी? सुख-संपत्ति मिलेगी, अगर ध्यान करेंगे? अब यह आदमी ध्यान कैसे करेगा? यह तो सुख-संपत्ति चाहने के लिए ही ध्यान करना चाहता है। अब जब यह ध्यान करने बैठे और सुख-संपत्ति के विचार उठने लगें तो आश्चर्य क्या है? फिर यह कहेगा कि ध्यान नहीं होता क्योंकि विचार चलते हैं। जब ध्यान करने बैठता है तो विचार चलते हैं, तो सोचता है विचार नहीं चलने चाहिए, तो विचारों को रोकता है। और ध्यान करने बैठा ही आकांक्षा से है। क्षुद्र आशय-सुख-संपत्ति! ___ कोई कहता है ध्यान करेंगे तो स्वास्थ्य मिलेगा? कोई कहता है ध्यान करेंगे तो सफलता हाथ लगेगी? अभी तो विफलता ही विफलता लगती है। ध्यान से जीवन का ढंग बदल जायेगा? सफलता हाथ लगेगी? __अब यह जो आदमी सफलता की आकांक्षा से बैठा पालथी मारकर, आंख बंद करके, इसके भीतर सफलता की तरंगें तो चल ही रही हैं। उलझा रहता था बाजार में तो शायद इतना पता भी न चलता था। अब खाली बैठ गया है सिद्धासन लगाकर, अब कोई काम भी न रहा, तरंगें और शुद्ध होकर चलेंगी। उलझन भी न रही कोई। मगर आंधी तो बह रही है। अंधड़ तो जारी है। ___ अष्टावक्र कहते हैं, आकांक्षा की आंधी तुम्हें अंधा बनाये हुए है। आकांक्षा की आंधी ने तुम्हें सीमा दे दी है। तुम वही हो गये हो, जो तुमने आकांक्षा पाल ली है। अगर तुम वस्तुओं को संग्रह करने में लगे हो तो अंततः तुम पाओगे, तुम वस्तुओं जैसे ही गये-बीते हो गये हो। किसी कचरेघर में फेंक देने योग्य हो गये। अगर तुमने धन चाहा तो तुम एक दिन पाओगे, कि तुम भी धन के ठीकरे हो गये। जो तुम चाहोगे वैसे ही हो जाओगे। क्योंकि चाह तुम्हारी सीमा बनती है। और चाह का रंग-रंगत तुम पर चढ़ जाती है। तुम वैसे ही हो जाते हो। महाशय को कैसा मोक्ष। 57
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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