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________________ लग ही नहीं पाया था कि घर से फोन आ गया कि पिता दस मिनट हुए, चल बसे। यह सामूहिक अचेतन है। इसका व्यक्तिगत अचेतन से कोई संबंध नहीं है। यह कुछ ऐसी जगह की बात है कि जहां पिता से बेटा जुड़ा है। जहां पिता और बेटे के बीच कोई सेतु है। यह हजारों मील पर जुड़ा होता है। जहां मां बेटे से जुड़ी है, जहां प्रेमी प्रेमी से जुड़ा है, जहां मित्र मित्र से जुड़े हैं। और अगर तुम गहरे उतरते जाओ तो जो मित्र नहीं हैं वे भी जुड़े हैं, जो अपने नहीं हैं वे भी जुड़े हैं। और गहरे उतर जाओ तो आदमी जानवर से जुड़ा है, और गहरे उतर जाओ तो आदमी वृक्षों से जुड़ा है। और गहरे उतर जाओ तो आदमी पत्थरों-पहाड़ों से जुड़ा है। हम जो भी रहे हैं अपने अतीत में, उन सबसे जुड़े हैं। जितने गहरे जाओगे उतना ही पाओगे, हम सामूहिक के करीब आने लगे। यह सामूहिक अचेतन है। मनुष्य ऐसा ऊपर-ऊपर दिखाई पड़ता है वहीं नहीं समाप्त हो गया है। ___ जब पूरब में यह बात कही गई कि संसार भी सपना है, और सपना तो सपना है ही, तो इतना ही अर्थ था कि सपना तो व्यक्तिगत अचेतन में उठता है और संसार सामूहिक अचेतन में उठता है। इसलिए संसार और संसार की वस्तुओं के लिए हममें झगड़ा नहीं होता। क्योंकि हम सब राजी हो सकते हैं। एक टेबल रखी है, दस आदमी देख सकते हैं, इसलिए कोई झगड़ा नहीं है। हम सब कहते हैं कि टेबल है। क्योंकि सबको दिखाई पड़ रही है, अब और क्या प्रमाण चाहिए? इसीलिए तो हम गवाही को इतना मूल्य देते हैं अदालत में। दस आदमी कह दें तो बात खतम हो गई। गवाह मिल गये तो मुकदमा जीत गये। गवाह का मतलब यह है कि देखनेवाले चश्मदीद लोग हैं। फिर बात खतम हो गई। अब और क्या करना है? और क्या प्रमाण चाहिए? संसार ऐसा सपना है जिसके लिए गवाह मिल जाते हैं। तुम्हारा सपना ऐसा संसार है जिसका कोई गवाह नहीं है। बस, इतना ही फर्क है। सपने तो दोनों हैं, तल का भेद है। एक सतह पर है, एक गहराई में है, लेकिन दोनों सपने हैं। __ अब अगर संसार से मुक्त होना हो तो क्या करें! कहां जायें? जब तक तुम्हारे अचेतन में रोशनी न पहुंच जाये तब तक तुम संसार से मुक्त न हो सकोगे। तुम भाग जाओ इस बाहर दिखाई पड़नेवाले संसार से, भीतर तो संकल्प-विकल्प उठते रहेंगे। संक्षोभात-वहां तो संक्षोभ होता रहेगा। वह भीतर का अचेतन तो लहरें लेता रहेगा। वहां तो तुम सपने देखते रहोगे। और उन्हीं सपनों में तुम्हारा संसार फैलता रहेगा। तुम शांत न हो सकोगे। अकुर्वन्नपि संक्षोभात् व्यग्रः सर्वत्र मूढ़धीः। वह जो मूढ़ है, वह जो अज्ञान और अंधेरे में डूबा हुआ है-मूढधीः, वह कर्मों को न भी करे तो भी संकल्प-विकल्प के कारण व्याकुल होता है। तुमने कई दफे पाया होगा, तुम ऐसी चीजों के लिए भी व्याकुल हो जाते हो जो हैं ही नहीं। जरा कभी बैठकर कल्पना करना शुरू करो। तुम ऐसी चीजों के लिए व्याकुल हो जाओगे, जो हैं ही नहीं। तब तुम हंसोगे भी कि यह भी मैंने क्या किया। यह तो है ही नहीं बात। एक अदालत में मुकदमा था। दो आदमियों ने एक-दूसरे का सिर फोड़ दिया था। जब मजिस्ट्रेट पूछने लगा कारण तो बताओ, तो वे दोनों हंसने लगे। उन्होंने कहा, क्षमा करें, दंड जो देना हो दे दें। अब कारण न पूछे। मजिस्ट्रेट ने कहा, मैं दंड बिना कारण पूछे दे कैसे सकता हूं? और तुम इतने 330 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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