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________________ तुम्हें एहसास भी होता था कि है, लेकिन तुमने जब बहुत चेष्टा की, तो तुम संकीर्ण हो गये। चेष्टा में आदमी का चित्त संकीर्ण हो जाता है। दरवाजा छोटा हो जाता है, सिकुड़ जाता है। जब तुम बहुत आतुर होकर खोजने लगे तो तुम्हारी आतुरता ने तनाव पैदा कर दिया। तनाव के कारण जो आ सकता था बहकर वह नहीं आ सका। तुम बाधा बन गये। फिर तुम सिगरेट पीने लगे। तुमने कहा, छोड़ो भी, जाने भी दो। अब नहीं आता तो क्या कर सकते हो? क्योंकि ऐसी घड़ियों में तुम अगर ज्यादा कोशिश करोगे तो लगेगा, पागल हो जाओगे। जबान पर रखा है और आता नहीं। बहुत घबड़ाने लगोगे, पसीना-पसीना होने लगोगे। कहते हो, छोड़ो। शिथिल हुए, विश्राम आया। जो चीज तनाव में न घटी वह विश्राम में तैरकर आ गई। नाम याद आ गया। यह अचेतन में था। याद थी इसकी। यह भी याद थी कि याद है, और फिर भी पकड़ में न आती थी। फ्रायड को हजारों उपायों से सिद्ध करना पड़ा कि अचेतन है। बात वहीं नहीं रुकी। फ्रायड के शिष्य जुंग ने और एक गहरी खोज की। उसने कहा, यह अचेतन तो व्यक्तिगत है। एक-एक व्यक्ति का अलग-अलग है। इसके और गहराई में छिपा हुआ सामूहिक अचेतन है-कलेक्टिव अनकांशस। वह हम सबका समान है। यह और भी मुश्किल है सिद्ध करना, क्योंकि यह और गहरी बात हो गई। लेकिन ऐसा भी है। कभी-कभी तुम्हें इसका भी अनुभव होता है। तुम बैठे हो, अचानक तुम्हें अपने मित्र की याद आ गई कि कहीं आता न हो। और तुमने आंख खोली और वह दरवाजे पर खड़ा है। एक क्षण तुम्हें विश्वास ही नहीं आता कि यह कैसे हुआ! तुम कहते हो, संयोग होगा। संयोग के नाम पर तुम न मालूम कितने सत्यों को झुठला देते हो। तुम कहते हो, संयोग होगा। मेरे एक मित्र हैं। कवि हैं, कवि सम्मेलन में भाग लेने गये थे। बस में बैठे-बैठे बीच रास्ते में उन्हें ऐसा लगने लगा कि लौट जाऊं। घर लौट जाऊं। कोई चीज खींचने लगी, घर लौट जाऊं। मगर कोई कारण नहीं घर लौटने का। घर सब ठीक है। पत्नी ठीक है, पिता ठीक हैं, बच्चे ठीक हैं। घर लौटने का कोई कारण नहीं है, अकारण। कुछ समझ में नहीं आया। वे लौटे भी नहीं, क्योंकि ऐसे लौटने लगे तो मुश्किल हो जायेगी। चले गये। रात एक होटल में ठहरे। कोई दो बजे, रात किसी ने आवाज दी, दरवाजे पर दस्तक दी, 'मुन्नू'। वे बहुत घबड़ाये, क्योंकि मुन्नू सिर्फ उनके पिता ही कहते उनको बचपन का नाम और तो कोई मुन्नू कहता नहीं। बड़े कवि हैं, प्रसिद्ध हैं सारे देश में। और कौन उनको मुन्नू कहेगा? बहुत घबड़ा गये। सोचा, मन का ही खेल होगा। और चादर ओढ़कर सो रहे। लेकिन फिर द्वार पर दस्तक, कि 'मुन्नू! अब की बार तो बहुत बात साफ थी। उठे, घबड़ाहट बढ़ गई। दरवाजा खोला, कोई भी नहीं है। हवा सन्नाती है। दो बजे रात। कोई भी नहीं है, सारा होटल सो गया है। कहीं कोई पक्षी भी पर नहीं मारता। फिर दरवाजा बंद करके सो रहे कि मन का ही खेल होगा। लेकिन बिस्तर पर गये नहीं कि फिर आवाज आई, 'मुन्नू!' अब तो आवाज बहुत जोर से थी। तो गये उठकर, नीचे जाकर उन्होंने फोन लगाने की कोशिश की। वे तो फोन लगा रहे थे तभी फोन आ गया। उनका तो फोन लगा ही नहीं था, मृढ़ कौन, अमूढ़ कौन! 329
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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