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________________ दूकान पर तुम जाओगे तो तुम्हें बारह नंबर का, दस नंबर का जूता लगता, वही दस नंबर का दूसरे को लगता। लेकिन एक दफा एक आदमी ने जूता पहन लिया दस नंबर का, उसका नंबर अलग हो गया। वह आदमी का पैर धीरे-धीरे जूते को बदल देता है। कहीं उसकी अंगुलि, कहीं उसका अंगूठा, कहीं उसकी एड़ी अलग ढांचे बना देती है। एक दफा दस नंबर का जूता एक आदमी ने पहन लिया, फिर दस नंबर के नंबर वाला दूसरा आदमी उसके जूते को पहने, वह पायेगा, यह नहीं चलेगा। यह पैर में बैठता नहीं। एक-एक पैर अलग है। तुम दूसरे का जूता तक नहीं पहन सकते तो दूसरे का मार्ग कैसे ओढ़ोगे ? न दूसरे के जूते पहने जा सकते, न दूसरे के पदचिह्नों पर चला जा सकता । हरेक को अपना ही मार्ग खोजना पड़ता है। सदगुरु के पास तुम्हें सिर्फ साहस मिलता, हिम्मत मिलती, बढ़ावा मिलता। वह कहता है, बढ़ो। फिक्र न करो । डरो मत। झिझको मत । राह है, और राह के आगे मिल जानेवाली मंजिल भी है । और मैं देखकर आया हूं, तुम चलो। तुम हिम्मत करो। सदगुरु मार्ग थोड़े ही देता है, अगर ठीक से समझो तो साहस देता, आत्मविश्वास देता। फिर जब तुम्हें वह मार्ग भी देता है तो भी जो मार्ग है वह धीरे- धीरे-धीरे तुम्हारे ढांचे में ढल जाता है। मैं ध्यान देता हूं अलग-अलग लोगों को। कभी-कभी एक ही ध्यान दो व्यक्तियों को देता हूं लेकिन आखिर में पाता हूं कि परिणाम अलग होने शुरू हो गये। एक ही नंबर के जूते दिये थे लेकिन उन्होंने अलग आकृति और अलग शकल लेनी शुरू कर दी । होगा ही । स्वाभाविक है । जैसे तुम्हारे अंगूठे के चिह्न अलग-अलग हैं, ऐसी तुम्हारी आत्माओं के चिह्न ' अलग-अलग हैं। तो जिसको निमित्त होना जंच जाये, जिसको सुगमता से, सरलता से, सहजता से निमित्त होना जंच जाये, ठीक। पहुंच जायेगा वहीं, जहां स्वच्छंद होनेवाला पहुंच जाता । जिसको स्वच्छंद होना जंच जाये वह भी पहुंच जायेगा वहीं । घबड़ाहट मत लेना, मंजिल तो एक ही है, क्योंकि सत्य एक ही है।" लेकिन बहुत द्वार हैं। जीसस ने फिर कहा है कि मेरे प्रभु के मंदिर के बहुत द्वार हैं। और मेरे प्रभु के मंदिर में बहुत कक्ष हैं। मंदिर एक ही है, द्वार बहुत, कक्ष बहुत । निमित्त का अर्थ होता है, जो हो वह प्रभु कर रहा है। तुम स्वीकार कर लो। तथाता ! बाग है यह हर तरह की वायु का इसमें गमन है एक मलयज की वधू तो एक आंधी की बहन है यह नहीं मुमकिन कि मधुऋतु देख तू पतझर न देखे कीमती कितनी ही चादर हो, पड़ी सब पर शिकन है दो बरन के सूत की माला प्रकृति है किंतु फिर भी एक कोना है जहां शृंगार सबका है बराबर फूल पर हंसकर अटक तो शूल को रोकर झटक मत ओ पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर कोस मत उस रात को जो पी गई घर का सवेरा रूठ मत उस स्वप्न से जो हो सका जग में न तेरा 320 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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