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________________ अपनी आखिरी गहराई को छुओ। और उस गहराई को प्रगट होने दो। इसके प्रगट होते ही तुम पाओगे, तुम निमित्तमात्र हो गये। क्योंकि यह गहराई तुम्हारी ही गहराई नहीं है, यह गहराई परमात्मा की भी गहराई है। असल में गहराई में हम सब एक हैं, सतह पर हम सब अलग हैं। केंद्र हमारा एक है, परिधि हमारी अलग है। जैसे ही हम गहरे उतरते हैं वैसे ही पाते हैं कि हम एक हैं। ऐसा समझो कि लहरें हैं सागर पर, करोड़ों लहरें हैं। लहर ऊपर से तो अलग मालूम पड़ती है दूसरी लहर से, लेकिन हर लहर गहराई में उतरे अगर तो एक ही सागर में है । जो व्यक्ति अपनी स्वच्छंदता में उतरेगा, स्वयं में उतरेगा, वह पहुंच जायेगा सागर में। वह पहुंच गया परमात्मा में । हो गया निमित्त । भाषा के भेद हैं। तुम चाहे निमित्त बनो, चाहे तुम स्वच्छंद बनो, ऊपर से देखने में विरोध है । यही अड़चन है। ज्ञानियों की भाषा में यही अड़चन है। और ऊपर से देखो तो बड़ा विरोध है। अगर तर्क से सोचो तो बड़ा विरोध है । निमित्त का तो अर्थ हुआ, स्वयं को गंवा दो । स्वच्छंद कैसे होओगे ? स्वच्छंद का अर्थ तो हुआ कि परमात्मा इत्यादि को सबको इंकार कर दो, अपनी घोषणा करो। ये तो विपरीत हो गये। लेकिन अनुभव में जाओगे तो पाओगे, यह विपरीत नहीं है। ये एक ही बात को कहने के दो ढंग थे। फिर कुछ लोग हैं जो निमित्त हो सकते हैं; उनको स्वच्छंद होने की झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। फिर कुछ लोग हैं जो स्वच्छंद हो सकते हैं; उनको निमित्त होने की झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। मार्ग पर तो लोग अलग-अलग होंगे, मंजिल पर एक हो जाते हैं। अंत में हम सब मिल जाते हैं। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, सब मिल जाते हैं अंत में। लेकिन प्रथम में हमारे मार्ग बड़े अलग-अलग हैं। 1 और इतने मार्गों की जरूरत है, क्योंकि इतने तरह के लोग हैं। कोई मार्ग व्यर्थ नहीं है। किसी न किसी के काम का है। कोई न कोई है पृथ्वी पर, जो उसी मार्ग से पहुंचेगा। इसलिए पृथ्वी से कोई भी मार्ग विदा नहीं होना चाहिए। अभी तो और कुछ मार्ग पैदा होने चाहिए। अभी कुछ ऐसे लोग हैं जिनके लिए कोई भी मार्ग नहीं है। दुनिया में मार्ग बढ़ते जायेंगे। जैसे-जैसे मनुष्य की चेतना गहरी होती जायेगी, वैसे-वैसे मार्ग बढ़ते जायेंगे । मुझसे कोई पूछता था दो दिन पहले कि दुनिया में इतने धर्मों की जरूरत क्या है? मैंने उससे कहा, अगर दुनिया में चैतन्य बढ़ेगा तो उतने धर्म होंगे जितने लोग होंगे। एक-एक व्यक्ति का एक-एक धर्म होगा। क्योंकि सच में एक-एक व्यक्ति इतना भिन्न है कि वह किसी दूसरे के मार्ग से कैसे चल सकता है ? तुमने कभी खयाल किया ? कभी किसी दूसरे आदमी के जूते पहनकर देखे ? तो जरा पहनकर देखना। बाहर जाकर आज ही एक-दूसरे के जूते पहनकर देखना । तुम शायद ही एकाध ऐसा जूता खोज पाओगे, जो तुम्हारे पैर से मेल खा जाये। नंबर भी एक हो तो भी तुम शायद ही कोई ऐसा जूता खोज पाओगे, जो तुम्हारे पैर से मेल खा जाये। क्योंकि नंबर एक होता, फिर भी पैर अलग-अलग होते हैं। सदगुरुओं के अनूठे ढंग 319
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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