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________________ लेकिन एक ऐसा जगत भी है जहां दूसरे से कोई स्पृहा नहीं है। अगर मैं द्रष्टा बनने निकलूं तो किसी से मेरा कोई संघर्ष नहीं। मैं अप्रतियोगी हो गया। मेरी किसी से कोई दुश्मनी न रही। लाख तुम लोगों को समझाओ कि मित्रता रखो, सभी तुम्हारे भाई-बंधु हैं, देखो पिता सबका एक है, परमात्मा एक है और हम सब उसके बेटे हैं तो हम सब भाई-बंधु हैं, लेकिन यह हल नहीं होता इससे कुछ, कितना ही यह कहो। स्कूल में तीस बच्चे हैं, एक क्लास में पढ़ते हैं, हम उनको कितना ही कहें कि तुम एक-दूसरे के मित्र हो, यह बात हो नहीं सकती। क्योंकि स्पर्धा तो मौजूद है, प्रथम आने की दौड़ तो मौजूद है। कोई एक प्रथम आएगा उनतीस को हराकर। तो हरेक हरेक का दुश्मन है। लाख समझाओ-बुझाओ। लाख ऊपर से हम रोगन पोतें और कहें कि हम एक-दूसरे के मित्र हैं, यह सब मित्रता दिखावा है, पाखंड है, औपचारिकता है। ___ शायद यह दिखावा भी जरूरी है उस भीतरी संघर्ष को चलाए रखने के लिए। यह मुखौटा भी जरूरी है, नहीं तो संघर्ष बिलकुल खुलकर हो जाएगा; गर्दनें कट जाएंगी। तो गर्दन काटते भी हैं हम और इस ढंग से काटते हैं कि कहीं कोई पता भी न चले, शोरगुल भी न हो, आवाज भी न हो। हम जेब काटते भी हैं और जेब में हाथ भी नहीं डालते। एक बड़े राजनेता ने एक बहुत बड़े दर्जी से अपने कपड़े बनवाये। जब वे कपड़े पहनकर उसने देखे तो बड़ा खुश हुआ। पूरी कुशलता दर्जी ने बरती थी। कोट भी सुंदर था, कमीज भी सुंदर थी, पैंट भी सुंदर था। राजनेता बहुत खुश हुआ। तभी उसने खीसे में हाथ डालकर देखा तो खीसा नहीं था। तो उसने दर्जी से पूछा कि इतना सुंदर तुमने वेश तैयार किया, खीसा तो है ही नहीं। यह भूल कैसे हो गई? उसने कहा, मैं तो सोचा कि आप राजनेता हैं; राजनेता अपने खीसे में हाथ तो डालते ही नहीं। तो खीसे की जरूरत क्या? राजनेता तो दूसरे के खीसे में हाथ डालते हैं। इस कुशलता से डालते हैं कि दूसरे को पता भी नहीं चलता। चोर भी चुराते हैं मगर पता चल जाता है। राजनेता भी चुराते हैं लेकिन पता नहीं चलता। ___ इस जगत में तो सब तरफ संघर्ष है। कोई बहुत सज्जनता से करता है, कोई बड़ी कुशलता से करता है, कोई छीना-झपटी कर देता है। जो छीना-झपटी कर देता है वह अकुशल है, बस। बेईमान तो सब एक जैसे हैं। बेईमानी में तो कुछ भेद नहीं है। इस जगत में ईमानदार होना तो असंभव है। क्योंकि इस जगत की दौड़ ऐसी है कि वहां बेईमान होना ही पड़ेगा। जो कर्ता बनने निकला है उसे लड़ना पड़ेगा। और लड़ना कहीं नैतिक हो सकता है? जो भोक्ता बनने निकला है उसे दूसरे की गर्दन काटनी ही होगी। अब दूसरे की गर्दन भी कहीं धार्मिक ढंग से काटी जा सकती है? मित्रता इत्यादि सब नाम हैं, बातचीत है, बकवास है, ऊपर का पाखंड है, धोखा है। जिसको तुम संस्कृति कहते हो, सभ्यता कहते हो, वह सब बातचीत है। उस बातचीत-सुंदर बातचीत के नीचे एक-दूसरे की जेबें काटी जाती हैं, एक-दूसरे की गर्दन काटी जाती है, एक-दूसरे की जड़ काटी जाती है। यहां दुश्मन तो दुश्मन हैं ही, यहां मित्र भी दुश्मन हैं। ___ ऑस्कर वाइल्ड ने लिखा है, हे प्रभु, दुश्मनों से तो मैं निपट लूंगा, मित्रों का तू जरा खयाल करना! दुश्मन से निपटना तो बहुत आसान है; कम से कम मामला साफ है। मित्रों से निपटना बहुत निराकार, निरामय साक्षित्व 277
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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