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________________ है द्रष्टा। देखनेवाला सदा साथ है। और अगर तुम इस देखनेवाले को ठीक-ठीक पहचानने लगो तो जब तुम मरोगे तब भी यह साथ रहेगा। बस यही साथ रहेगा, और सब छूट जायेगा। मृत्यु तो एक घटना है। जैसे जीवन देखा वैसे मृत्यु को भी तुम देखोगे। जैसे दिन देखा—दिन जीवन है; और रात देखी-रात मौत है; ऐसे ही बड़ी रात आएगी मौत की, अमावस आएगी, वह भी तुम देखोगे। मगर द्रष्टा से पहचान बना लो। द्रष्टा से दोस्ती बना लो। द्रष्टा के साथ गठबंधन कर लो। ___ हालत तो ऐसी है कि तुम अभी दिन में ही बेहोश तो रात में तो बेहोश रहोगे ही। जीवन ही सोये-सोये जा रहा है तो मौत तो और गहरी नींद है, वहां तो तुम जाग न पाओगे। और जिसने एक बार मौत को जागकर देख लिया, उसका फिर जो नया जन्म होगा वह भी जागकर होगा। जब मौत तक को देख लिया, फिर क्या अड़चन रही? तुम जागते हुए जन्मोगे। बस, जागकर एक बार मौत हो जाए तो उसके बाद जो जन्म होगा वह जागा हुआ होगा। तुम देखते हुए जन्मोगे। और उसके बाद फिर कुछ भी नहीं है। फिर आखिरी जीवन आ गया, फिर जो मौत होगी वही मोक्ष है। कर्ता और भोक्ता दश्य में उलझाव है. द्रष्टा भीतर की यात्रा है। 'धीर पुरुष को स्वाभाविक उच्छृखल स्थिति भी शोभती है'-सुनना सूत्र को—'धीर पुरुष को स्वाभाविक उच्छृखल स्थिति भी शोभती है, लेकिन स्पृहायुक्त चित्तवाले मूढ़ की बनावटी शांति भी नहीं शोभती।' उच्छृखलाप्यकृतिका स्थिति/रस्य राजते। न तु संस्पृहचित्तस्य शांतिर्मूढस्य कृत्रिमा।। अष्टावक्र कह रहे हैं कि अगर ज्ञान को उपलब्ध, साक्षी में जागा पुरुष हो, धीर पुरुष हो तो उसको अशांति भी शोभती है। उसके जीवन में दुख भी आभूषण हैं। उसे अगर तुम क्रोधयुक्त भी पाओगे तो उसके क्रोध में भी तुम पाओगे एक गरिमा, एक गौरव, एक दिव्यता। अगर वैसा व्यक्ति उच्छृखल भी होगा तो तुम उसकी उच्छृखलता के गहरे में शांति की अपूर्व धारा पाओगे। और इससे विपरीत भी सच है : 'स्पृहायुक्त चित्तवाले मूढ़ की बनावटी शांति भी नहीं शोभती।' 'स्पृहायुक्त चित्तवाले...।' जिसके जीवन में अभी ईर्ष्या है, द्वेष है, स्पर्धा है, कॉम्पिटीशन है। खयाल करो, द्रष्टा होने में तो कोई स्पृहा नहीं हो सकती। क्योंकि मैं द्रष्टा हो जाऊं तो तुमसे कुछ छीनता नहीं। तुम द्रष्टा हो जाओ तो मुझसे कुछ छीनते नहीं। लेकिन मैं अगर भोक्ता बनूं तो तुमसे बिना छीने न बन सकूँगा। मुझे अगर बड़ा महल चाहिए तो किन्हीं के मकान गिरेंगे। मुझे अगर बहुत धन चाहिए तो किन्हीं की जेबें कटेंगी। मुझे अगर बहुत यश चाहिए तो किन्हीं के जीवन से यश के दीये बुझेंगे। मुझे अगर पद चाहिए तो जो पद पर हैं उन्हें नीचे गिराना होगा। स्पृहा! भोग में तो स्पृहा है। ___ अगर मुझे कर्ता होना है तो संघर्ष होगा, कलह होगी। क्योंकि और भी कर्ता बनने निकले हैं, मैं अकेला नहीं। और कर्ता का जो जगत है, वह बाहर है। सभी निकले हैं विजेता होने, सभी सिकंदर बनने निकले हैं। संघर्ष होगा। हिंसा होगी। कष्ट फैलेगा। दुख आएगा। मनुष्य-जाति का पूरा इतिहास स्पृहा से भरे हुए पागलों का इतिहास है। तैमूरलंग, चंगीजखान, सिकंदर, नेपोलियन और सब। 276 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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