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________________ हृदय जो कुछ भेजो वह सहे दुख से त्राण नहीं मांगू मांगं केवल शक्ति दख सहने की दुर्दिन को भी मान तुम्हारी दया अकातर ध्यानमग्न रहने की देख तुम्हारे मृत्युदूत को डरूं नहीं न्योछावर होने में दुविधा करूं नहीं तुम चाहो, दूं वही कृपण हो प्राण नहीं मांगू राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे हृदय जो कुछ भेजो वह सहे दुख से त्राण नहीं मांगू ऐसा हो। इसका स्मरण रखना। क्योंकि अच्छे-अच्छे शब्दों में खो जाने का डर है। कविताएं मधुर होती हैं। कविताओं का अपना एक रस है, अपना मनोरंजन है। लेकिन जब तक हृदय वैसा न हो जाये-काव्यसिक्त-तब तक रुकना मत। तुमने कभी देखा, किसी की कविता पढ़कर मन डांवांडोल हो जाता है। डोल-डोल उठता है। लेकिन उस कवि से मिलने जाओ और बड़ी बेचैनी होती है। वह कोई साधारण आदमी से भी गया-बीता आदमी मालूम होता है। तुम चकित होते हो, कैसे इस अभागे को ऐसी कविता का दान मिला! ऐसा अक्सर हो जाता है। क्योंकि कवि जो कह रहा है, उसकी झलकें भर आती हैं उसे, कभी-कभी छलांग लगती है आकाश में, फिर जमीन पर पड़ जाता है। यही तो कवि और ऋषि का फर्क है। कवि छलांग लगाता है, एक क्षण आकाश में उठ जाता है, फिर जमीन का गुरुत्वाकर्षण खींच लेता है, फिर जमीन पर गिर जाता है। अक्सर ऐसा होता है कि ज्यादा ऊंची छलांग लगायी तो हाथ-पैर टूट जाते हैं जमीन पर गिरकर। ज्यादा उचके-कूदे, खाई-खड्ड में गिर जाते हैं। समतल जमीन तक खो जाती है। तो कवि अक्सर ऐसी दशा में होता हैलंगड़ा-लूला, हाथ-पांव तोड़े, अपंग। उसकी कविताओं में तो हो सकता है परमात्मा की बात हो और उसका मुंह सूंघो तो शराब की बास आये। उसके गीत तो ऐसे हो सकते हैं कि उपनिषदों को मात करें, और उसका जीवन ऐसा फीका हो सकता है जहां कभी कोई फूल खिले, इसका भरोसा ही न आये। ऋषि और कवि का यही फर्क है। ऋषि जो कहता है, वही उसका जीवन है। सच तो यह है, कवि का जो जीवन नहीं है उससे ज्यादा वह कह देता है। और ऋषि का जो जीवन है, उससे वह हमेशा कम कह पाता है। उतना नहीं कह पाता। क्योंकि शब्द में उतना अटता नहीं। है उसके पास बहुत, शब्द छोटे पड़ जाते हैं। कवि तो अक्सर अपने जीवन से ज्यादा कह देता है और ऋषि अक्सर अपने जीवन से बहुत कम कह पाता है। जीवन तो सागर है; जो कह पाता है वह बूंद ही रह जाती है। कविता में मत खोना। ऐसी तुम्हारी जीवन-दशा बने, इसका स्मरण रखना। . 262 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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