SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चाहे सीधे तुम कहो न कि तूने करवा दी, तुम कहोगे परिस्थिति! पत्नी को बीमार किसने किया? भूखे मरते थे, किसने मारा? ऐसी अड़चन में, ऐसी कठिनाई में अगर चोरी कर ली-भूखे भजन न होहिं गोपाला-हे गोपाल, जब भूखे भजन न होते थे तो कर ली, तेरे भजन के लिए भी जरूरी थी। तो तुम किसी-न-किसी पीछे के दरवाजे से उसी पर छोड़ दोगे चोरी। और जब दान करोगेचोरी करोगे लाख की, दान करोगे दो-चार-दस रुपये का-जब दान करोगे तो छाती फुला लोगे। देखा न, मुर्गे कैसे छाती फुलाकर चलते हैं। ऐसे दानी चलने लगते हैं। दानवीर! यह उन्होंने किया है। तब तुम न कहोगे, तूने किया है। क्योंकि अहंकार यह तो कह ही नहीं सकता। जो शुभ-शुभ है उसको बचा लेता है, उससे अपना श्रृंगार बना लेता है। फूलों को तो सजा लेता है, कांटों को उस पर छोड़ देता है। लेकिन यह स्वाभाविक है। भूल तुम्हारी नहीं, तुम्हारे साधु-संतों की है जो तुमसे कहते हैं कि आधा तुम्हारा, आधा उसका। या तो सब उसका, या सब तुम्हारा। दो तरह के ज्ञानी हुए हैं संसार में। एक कहते हैं, सब तुम्हारा। वे भी सच कहते हैं। और एक कहते हैं, सब उसका। वे भी सच कहते हैं। बाकी बीच में जो कहते हैं- कुछ तुम्हारा, कुछ उसका, ये अज्ञानी हैं। इन्हें कुछ भी पता नहीं है। ____ महावीर कहते हैं, सब तुम्हारा। यह भी सच है बात। अष्टावक्र कहते हैं, सब उसका। यह भी सच है बात। एक बात तो दोनों में सच है कि पूरा-पूरा रहता है, काट-काट कर हिसाब नहीं होता। कोई श्रम-विभाजन नहीं है कि तुम कुछ करो, कुछ मैं करूंगा। ___महावीर कहते हैं, पूरा मनुष्य का। तो उसमें बुरा भी आ जाता है, अच्छा भी आ जाता है। अच्छे और बुरे एक-दूसरे को काट देते हैं। जैसे ऋण और धन एक-दूसरे को काट देते हैं। तुम शून्य रह जाते हो। वही शून्य होना ध्यान है। शून्य हो गये, नहीं हो गये, बांसुरी बन गये। महावीर की भाषा है बांसुरी बन जाना, क्योंकि महावीर की भाषा में परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं है। शन्य हो गये, ध्यानी हो गये, कैवल्य को उपलब्ध हो गये। लेकिन बात वही है। अष्टावक्र की भाषा में तुमने दोनों परमात्मा पर छोड़ दिये, तुम शून्य हो गये। महावीर की तरकीब में तुम कहते हो, धन भी मेरा, ऋण भी मेरा। दोनों एक-दूसरे को काट देते हैं। तुम खाली रह जाते हो। बुराई और भलाई को अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम बड़े चकित हो जाओगे, बुराई और भलाई का अनुपात बिलकुल बराबर होता है। तुल जाते हैं तराजू पर। एक-दूसरे से कट जाते हैं। तुम उतनी ही बुराई करते हो जितनी भलाई करते हो। इधर तुम्हारी भलाई बढ़ेगी, उधर तुम्हारी बुराई भी बढ़ेगी। ऐसे, जैसे वृक्ष ऊपर उठता है, वैसे जड़ें नीचे जाती हैं। जितना वृक्ष ऊपर जायेगा उतनी जड़ें नीचे जायेंगी। ऐसा नहीं हो सकता कि वृक्ष तो सौ फीट ऊपर उठ जाये और जड़ें दो-चार फीट नीचे जायें। गिर जायेगा। वृक्ष बच नहीं सकता। नीत्शे का बहुत प्रसिद्ध वचन है और बहुत बहुमूल्य कि जिसे स्वर्ग जाना हो, उसे नर्क में पैर अड़ाने पड़ते हैं। ठीक कहता है नीत्शे, स्वर्ग जाना हो तो नरक में जड़ें फैलानी पड़ती हैं। तुम जितना अच्छा करोगे उतना ही बुरा होगा। अनुपात बराबर रहेगा। तुम देखते नहीं बुराई को, तुम बुराई से आंख चुराते हो, इसलिए तो तुम्हें लगता है भलाई खूब की। लेकिन कुछ इस जगत में संतुलन टूटता ही नहीं। संतुलन बराबर बना है। संतुलन इस जगत का परम नियम है। सब चीजें एक 246 अष्टावक्र: महागीता भाग-5 |
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy